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धमाके में मेरी मौत हुई तो....

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डरने लगा हूं लगातार हो रहे धमाके से। सोचता हूं अगर मेरी भी मौत किसी धमाके में हो गई तो क्या होगा? कई बार तो ये भी सोचता हूं कि धमाके में मेरी मौत हो गई और साथ में कोई आईडेंटिटी कार्ड नहीं रहा तो कोई मेरी लाश को कैसे पहचानेगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मेरी भी लाश लावारिस कहलाएगी। खुदा से बस यही गुजारिश है कि अगर ऐसे धमाकों में मौत हो तो मेरी पहचान जरूर हो जाए। कितना जरूरी हो गया है आज की तारीख में खुद की पहचान बनाए रखना। लगातार ये भी सोचता हूं कि अगर मेरी मौत हो गई तो क्या होगा? सबसे ज्यादा तकलीफ किसको होगी? जाहिर है पत्नी और बच्चे टूट जाएंगे। मेरे बिना मेरी पत्नी और बच्चे एक मिनट की भी कल्पना नहीं कर सकते। जानता हूं कि पत्नी खूब रोएगी। तमाम शिकायतें होगीं। रोते-रोते बातें करेगी। मुझसे बार-बार कहेगी...कहां चले गए तुम? आस पड़ोस के लोग और रिश्तेदार बार-बार मेरी पत्नी को ढाढस दिलाने की कोशिश करेंगे पर ऐसे समय में कौन रुकता है। जिंदगी की सबसे खराब घड़ी यही तो होती है। मेरी बेटी को मौत और जिंदगी की समझ होने लगी है। उसको पता है मौत का मतलब। वो जानती है कि जिसकी मौत हो जाती है वो वापस नहीं आते

आमिर खान का 'बाज़ारवाद'

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प्रिय मित्रों, अगर आप आमिर खान के फैन्स क्लब के सदस्य हैं तो मुझे माफ कीजिएगा। अगर आप आमिर के मिस्टर परफेक्शनिस्ट वाले व्यक्तित्व को आदर्श मानते हैं तो फिर से माफी मांगता हूं। और अगर आप ये मानते हैं कि आमिर लीक से हटकर चलने वाले अभिनेता हैं तो आपके साथ कुछ बातें शेयर करना चाहता हूं। आमिर खान को अचानक बुद्धि आ गई है। बुद्धि आने का मतलब है आमिर दुनियादारी सीख चुके हैं। शाहरुख खान से किसी मायने में अब कम नहीं रहे। न तो पैसे कमाने में और न ही स्टोरी सलेक्शन में। कहते हैं जैसे ही आदमी में पैसे कमाने की धुन सवार होती है वो हर चीज को प्रोडक्ट के तौर पर देखने लगता है। अमुक चीज से संवेदनात्मक लगाव खत्म हो जाता है। अब तक आमिर ने स्टोरी के चयन में भले ही एक मिसाल कायम किया हो। पर गजनी के लिए ऐसा कहना सरासर गलत होगा। मैं स्पष्ट कर दूं--मैंने फिल्म गजनी नहीं देखी। पर जिस तरह से आमिर ने इसके लिए प्रचार की सारी हदें पार की उससे साफ लगता है कि आमिर अब बिक चुके हैं। अपना प्रोडक्शन हाउस क्या खोला, दुनियादारी तुरंत समझ में आने लगी। सड़कों पर गजनी कट बाल काटने से लेकर पता नहीं क्या-क्या प्रमोशनल कैंपेन चल

26/11 एक महीने बाद

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रोशनी को इस बात का ठीक-ठीक एहसास नहीं है कि उसके पापा कहां चले गए हैं। मम्मी को टूटकर घंटों रोते देखती है, दादी को रोते देखती है तो उसे एक मिनट के लिए लगता है कि पता नहीं ये लोग इतना क्यों रो रहे हैं? दादा जी तो कहते हैं कि पापा काम पर गए हैं। काम खत्म होते ही घर आ जाएंगे। लेकिन सबके बुलाने के बाद भी जब पापा नहीं आते तो रोशनी उनसे शिकायत करती है। कहती है पापा बहुत बुरे हैं। आएंगे तो उनसे मैं बात नहीं करूंगी। और जब प्यार करेंगे, मनपंसद चीज लाकर देंगे तब उनके पास जाऊंगी। रोशनी बच्ची है। महज पांच-छह साल की मासूम। घर वालों ने उसे ये कहकर बहला दिया है कि उसके पापा काम पर गए हैं और जब आएंगे तो उसके लिए बुक और पेंसिल लाएंगे। बस वो उस दिन की ताक में है कि कब उसे नई किताब और पेंसिल मिलेगी। रोशनी के पापा मुंबई हमले में आतंकी इस्माइल की गोलियां के शिकार हो गए। रोशनी के पापा ठाकुर वाघेला मुंबई के जीटी अस्पताल में काम करते थे। रात के तकरीबन ग्यारह बजे का समय रहा होगा। कुछ देर पहले ही ठाकुर अपने घर लौटा था। लेकिन इसी समय आतंकियों ने कहर बरपाना शुरु कर दिया। गोलियां उगलती बंदूकों ने लोगों को छलनी करन

' डिप्रेशन में आडवाणी '

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पांच राज्यों के विधानसभा के नतीजे से बीजेपी को सबक लेने की जरूरत है। बीजेपी के थींक टैंक अरुण जेठली जैसे नेताओं को तो खासतौर से। उन्हें समझ लेना चाहिए कि राष्ट्रीय मुद्दे अब मायने नहीं रखते। जनता को विकास की चीजें नजर आएंगी तो फिर कोई कुछ भी कर ले...ऊंट उसी करवट बैठेगा। इन नतीजों ने गुजरात के तेजतर्रार मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को भी एक झटका दिया है। नरेंद्र भाई मोदी ये कतई न समझें की बीजेपी में सिर्फ वही एक ऐसे नेता नहीं बच गए हैं जो अपने बलबूते पर चुनाव जीत सकते हैं। शिवराज सिंह चौहान और चावल वाले बाबा यानी रमन सिंह उनके सामने सामने हैं। मजेदार बात ये है कि इन दोनों मोदी के फार्मूले का इस्तेमाल भी नहीं किया। बीजेपी में खुद को एकमात्र कद्दावर नेता मानने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने भोपाल में बड़ा सोच समझकर हिंदूत्व का कार्ड खेलने की कोशिश की। साध्वी प्रज्ञा का जमकर हिमायत किया। लेकिन उसके बाद भी शिवराज सिंह ने विकास के मुद्दे को ही अपना एजेंडा बनाए रखा। बात बन गई। उधर चावल वाले बाबा की छवि हमेशा से बड़ी साफ सुथरी रही है। हैम्योपैथिक डॉक्टर रमन सिंह ने सिर्फ विकास को ही एकमात्र आधार बनाय

साध्वी प्रज्ञा को बचाना है !

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आज से ठीक दो दिन पहले बीजेपी के शीर्षस्थ लालकृष्ण आडवाणी ने भोपाल में चुनावी सभा में सरेआम ऐलान किया कि साध्वी प्रज्ञा को मुंबई एटीएस ने जानबूझकर फंसाया है। उन्होंने दावे के साथ जिक्र किया कि साध्वी प्रज्ञा पर ये उनका पहला वक्तव्य है। उन्होंने इसका कारण भी दिया। बताया कि उन्होंने साध्वी का एफिडेविट पढ़ा है। जिसमें साफ-साफ लिखा है कि एटीएस ने 16 दिनों तक हिरासत में रखा। इस दौरान कोर्ट में पेश तक नहीं किया गया। जाहिर है कानूनी तौर पर इसे जायज नहीं माना जा सकता। दूसरी वजह बताई कि साध्वी को हिरासत में लगातार परेशान किया जा रहा है। इसके बाद आडवाणी ने कांग्रेस और यूपीए सरकार को खरी खोटी सुनाई। अच्छा है साध्वी के बहाने राजनीति का नया पैंतरा। उसी दिन आरएसएस के वरिष्ठ मदन दास देवी ने भी पत्रकारों से बात की। साफ किया कि इंद्रेश कुमार संघ के कर्मठ और अहम कार्यकर्ता है। संघ में न तो उनकी हैसियत कम होगी और न ही उन्हें किसी से परेशान होने की जरूरत है। इसी के साथ संघ ने ये भी कहा कि साध्वी को जानबूझकर परेशान किया जा रहा है। और इसकी वजह है सरकार और उससे भी बड़ी वजह है वर्तामान और आगामी चुनाव। इन सब प्

सबसे बड़ा सच---'झूठ'

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हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां सबसे बड़ा सच है 'झूठ'। जो जितनी चालाकी से झूठ बोलता है, जो अपने ग़लत कारनामों को आसानी से छुपा सके--वो ही है आज की सबसे बड़ी जीत। राहुल राज का एनकाउंटर नहीं हुआ उसकी हत्या की गई--ये कोई और नहीं बल्कि फॉरेंसिक एक्सपर्ट कह रहे हैं। मुंबई के जे जे अस्पताल के फॉरेंसिक एक्सपर्ट डॉक्टरों ने साफ-साफ कहा है कि उसे दो फीट की दूरी से गोली मारी गई है। क्योंकि उसके चेहरे पर गन पाउडर और काले धब्बे मौजूद हैं। ज़ाहिर है उसे पहले पकड़ा गया है फिर उससे बात की गई है उसके बाद उसकी हत्या की गई है। राज ठाकरे को कोई लाख गालियां दे ले पर ये मानना होगा कि पूरा सिस्टम राज ठाकरे का साथ दे रहा है। देशमुख सरकार तो मानों राज की दलाली में जुटा है। चूंकि कई राज्यों में चुनाव नजदीक है इसलिए केंद्र सरकार देशमुख सरकार को नहीं लताड़ रही है। लेकिन सच तो यही है जिसे लगातार झुठलाया जा रहा है। महाराष्ट्र सरकार लगातार राज ठाकरे को सुरक्षित बनाने में जुटी है। केंद्र सरकार ईसाईयों के हमले पर अगर उड़ीसा और कर्नाटक सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने की धमकी दे सकती है तो फिर महाराष्ट्र में क्यो

एनकाउंटर का खौफ

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दिल्ली के जामिया नगर के बाटला हाऊस में एनकाउंटर। एक तरफ दिल्ली पुलिस के दावे और दूसरी तरफ बाटला हाऊस में रहने वाले लोगों की बातें। जाहिर है दोनों में सच तो कोई एक ही है। या तो वहां से निवासी या फिर दिल्ली पुलिस। एनकाउंटर पर तमाम पत्रकार और बुद्धिजावी सवाल उठा रहे हैं। उनके पास अपने तर्क हैं। पुलिस की बात को सही मानने वाले बौद्धिक मैथुन करने वालों की भी कमी नहीं। अपनी-अपनी काबिलियत माफिक हर कोई बहस को तैयार है। चलिए दोनों पक्ष के बौद्धिक जनों की बातों को भी स्वीकार कर लिया जाए। बड़ी अच्छी बातें ऐसे लोग अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं। मुझे पता चला कि तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों की मीटिंग में इन बातों पर काफी गरमा-गरम बहस हो रही है। पुलिस का पक्ष लेने वालों को बीजेपी से सीधे तौर पर जोड़ा जा रहा है और जो पुलिस के एनकाउंटर पर सवाल खड़े कर रहे हैं उन्हें वामपंथी माना जा रहा है। सुनने में आया है कि तमाम न्यूज चैनलों के न्यूज रूम में भी लोग खुलेआम पुलिस का पक्ष लेते दिख रहे हैं और मुस्लमानों को अप्रत्यक्ष रुप से सुना भी रहे हैं। कुछ बदतमीज और बेबाक लोग खुलेआम अपनी आरएसएस वाली चड्ढी दिखाने को आतुर

कौन लौटाएगा सिमरन की हंसी?

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शिवराज पाटिल की उम्र कितनी होगी? 73 साल के पाटिल। अपनी इस उम्र में उन्होंने अपने घर में किसी को ऐसे बिलखते देखा होगा जैसे तड़प रही है पांच साल की मासूम सिमरन। शायद नहीं। राजनीति के जिस मकाम पर पाटिल साहब हैं कम से कम उससे तो नहीं लगता। बेसहारा और लाचार मासूम की तरह क्या उनके घर में कोई कभी रोया होगा? शायद नहीं। वजह है। धनी मानी परिवार से ताल्लुक रखने वाले पाटिल को बेबसी के आंसू के बारे में क्या पता। चलिए खुदा न करे। उन्हें इस उम्र में कुर्सी के अलावा किसी और चीज के लिए बेबसी के आंसू का एहसास हो। ऐसा नहीं कि वो पार्टी अध्यक्ष के तलवे चाटना नहीं जानते। धमाकों के समय भी तीन बार कपड़े बदलना नहीं जानते। ऐसे में भी बालों में जेल(क्रीम)लगाना नहीं जानते। ऐसा नहीं कि सरेआम खुद को चमचा कहलाने में उन्हें कोई हर्ज है। इन सबके एवज में बस जो उन्हें नहीं जानना है उसके लिए बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करते। अकसर दफ्तर में कहा जाता है। जो काम नहीं करता है वो सबसे सुकून से रहता है और उसकी तरक्की तो पक्की होती है। नेतागीरी तो फिर बिना चमचागीरी के हो ही नहीं सकती। भले लोग उसे गॉड फादर की संज्ञा दें। पर वो विशु

प्रचंड की खुली पोल

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नेपाल के नए प्रधानमंत्री प्रचंड। माओवादियों के प्रखर और ओजस्वी नेता। ऐसा नेपाल की जनता ही नहीं माओवाद को मानने वाले भी कहते थे। नेपाल में राजशाही को जब तक खत्म नहीं कर लिया तब तक चैन नहीं लिया। प्रचंड खुद अब सत्ता में हैं। लेकिन इससे पहले वो माओवादी नेता हैं। माओवाद के सिद्धांतों को मानने वाले। पर ऐसा नहीं है। सत्ता में आते ही प्रचंड की नंगई नजर आ गई। प्रचंड बिलकुल नेताओं की तरह बात करने लगे। किससे नफा और किससे नुकसान--इसका ख्याल सबसे पहले रखने लगे। प्रचंड का भारत दौर उनके लिए काफी महत्वपूर्ण है। बड़ी वजह है। नेपाल में भारतीय कंपनियों के निवेश की गुहार लगाना। प्रचंड ने हमेशा पूंजीपतियों के खिलाफ बेखौफ आवाज उठाई। जिंदगी का एक लंबा समय जंगलों और भारत के शहरों में छुप-छुपकर बिताया। लेकिन सत्ता में आते ही खुद पूंजीपतियों को निवेश के लिए अनुरोध कर रहे हैं। देश की तरक्की हर कोई चाहता है। पर एकदम से विकास मॉडल को हाईजैक करके उसे अमल में लाने की फिलहाल जरूरत नहीं थी। बुद्धदेव भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के रोल मॉडल मुख्यमंत्री के तौर पर उभरे। विकास के नाम पर ज्योति बाबू से ज्यादा काम किया। इसके लि

"मोहल्ला" के अविनाश (नए ब्लागर्स के पालनहार)

नए ब्लागर्स के पालनहार। उन्हें मंच देने वाले। उनकी आवाज को एक मंच देने वाले। यशवंत के भड़ास से नफरत करने वाले पर नए ब्लागर्स की भड़ास को अहमियत देने वाले---अविनाश। मोहल्ला ब्लागर्स चलाने वाले अविनाश। एनडीटीवी में बड़े पद पर काम करने वाले अविनाश। टेलीविजन के पुराने पत्रकार अविनाश। हिंदी के सबसे पुराने हिंदी ब्लागर्स में से एक अविनाश। मुझे उम्मीद है अब आप लोगों के जेहन में अविनाश के 'मोहल्ला' की छवि उभर गई होगी। रवीश के साथ एक अलग मोहल्ला चलाने वाले अविनाश ने अच्छा किया कि एक नए पत्रकार की स्क्रिप्ट को अपने ब्लाग पर रखा। न तो आजतक मेरी अविनाश से मुलाकात हुई है और न ही नए पत्रकार अनिल यादव से। पर अविनाश को एक बात जरूर कहना चाहता हूं। टेलीविजन के लिए स्क्रिप्ट लिखने के लिए उसके साथ सपोर्टिंग विजुल का होना जरूरी है। लफ्फाजी और संपादकीय लिखने की गुंजाइश कम से कम टेलीविजन में कम रहती है। इसके लिए अखबार की नौकरी अच्छी है। कम से कम अविनाश से ऐसी उम्मीद मैं नहीं करता। अविनाश को ऐसे युवा पत्रकारों को एक बार जरूर समझाना चाहिए। एक बात और पत्रकार बनने का मतलब ये नहीं कि किसी को कभी भी गाली द

राजेश जोशी और आज के कवि

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बच्‍चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे? क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं सारी रंग बिरंगी किताबों को क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं सारे मदरसों की इमारतें क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन खत्‍म हो गए हैं एकाएक तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में? कितना भयानक होता अगर ऐसा होता भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल कवि राजेश जोशी की यह कविता और लंबी है। लेकिन इन पंक्तियों में विकासशील देश की असलियत है। भले ही डेवलप्मेंट सिस्टम के लिए माहिर माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफनी पीठ थपथपाए। सोनिया गांधी विकास के सारे आंकड़े दुनिया के सामने रखें। लेकिन राजेश जोशी की ये पंक्तियां अकाट्य है। कुछ दिन पहले कवि राजेश जोशी को साक्षात सुनने का मौका मिला। जोशी जी ने तमाम कविताएं सुनाईं। कविता के जरिए अपने अनुभव सुनाए। मैं हिल गया। सच को इतनी आसानी से

तानाशाह मुशर्रफ का अंत

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पाकिस्तान टीवी पर पूर्व जनरल परवेज मुशर्रफ को रोते हुए पूरी दुनिया ने देखा। घड़ियाली आंसुओं का मानों सैलाब ला दिया। लेकिन पाकिस्तान की जनता पर कोई खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। लोगों के दिल पर उभरे गहरे जख्मों पर इन घड़ियाली आंसुओं का असर नहीं हुआ। एक बार फिर से जिंदगी की हकीकत सामने आई। समय से बड़ा कोई नहीं। चाहे सद्दाम हुसैन हो या फिर मुशर्रफ। अंत एक सा ही होता है। तानाशाह की प्रमुख कांटे भारत के लिए चुन चुन कर कांटे बोने वाले फौजी तानाशाह के तौर पर। (1) याद कीजिए - 2001 में करगिल की चोटियों पर 500 बहादुर भारतीय फौजियों का खून बहाने के लिए यही जनरल जिम्मेदार है। महीनों की तैयारी के साथ सादी वर्दी में पाकिस्तानी फौजी टिड्डियों की तरह करगिल की चौटियों पर काबिज हो गए थे। देर से भारत को खबर लगी - और उस वक्त चोटियों को आजाद करवाने में नाकों चने चबाने पड़ गए। ये था मुशर्रफ का बोया पहला कांटा। उस वक्त तो वो सत्ता में भी नहीं थे, नवाज शरीफ सरदार थे - लेकिन फौज और आईएसआई की लगाम मुशर्रफ के हाथों में ही थी। (2) 13 दिसंबर 2001 - भारत के दिल पर सीधा हमला, आत्मघाती हमलावरों ने

शाबाश! बिंद्रा इज्जत रख ली

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ओलंपियन अभिनव बिंद्रा तुमने लाज रख ली यार। वरना सुपर पॉवर बनने की होड़ में जुटा देश और ओलंपिक में निल बट्टे सन्नाटा। अच्छा किया तमाम संस्थानों ने लाखों और करोड़ों रुपए देकर अपना पल्ला झाड़ा। पर शर्मनाक ये है कि जो लोग कुछ भी नहीं लेकर आए उनका क्या किया जाएगा। जवाब एक ही है। अगली बार के लिए तैयारी करेंगे। पर कमी कहां रह गई, खिलाड़ियों की तरफ से या सरकार की तरफ से---न तो इसका विश्लेषण होगा और ही कोई कार्रवाई। चार साल बाद फिर से जब टीम जाने लगेगी तो खिलाड़ियों को भेजने पर राजनीति होने लगेगी। यकीन मानें तो अपने सिस्टम में ही खराबी है। अभिनव बिंद्रा गोल्ड इसलिए जीत पाया क्योंकि उसके पिता के बहुत पैसा है। उसके पिता ने अपने बेटे की ट्रेनिंग पर अबतक 10 करोड़ से ज्यादा खर्च कर दिया है। क्या झारखंड ने निकला हुआ खिलाड़ी उड़ीसा का कोई चमकता सितारा इसकी हिम्मत जुटा पाएगा। शायद नहीं। अभ्यास अपनी जगह है। पर अब ज़माना प्रोफेशनल अभ्यास का है। बिंद्रा ने कमांडो ट्रेनिंग जर्मनी में जाकर की। आम खिलाड़ी कहां से कर पाएगा। इसमें दोष किसका है? अभिनव के पापा का जिन्होंने अपने पैसे पर बेटे को ट्रेनिंग दिलाई या

न्यूज चैनल पर साईं की कृपा

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वक्त बदला। समाज बदला। लोगों की सोच में परिवर्तन आया। चीजों को देखने का नजरिया बदला। इसमें सबसे ज्यादा बदलाव आया टीवी में। खासकर टीवी न्यूज में। एकदम से उसकी परिभाषा बदल गई। चूंकि प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी इसलिए खबरें भी बदलने लगीं। फिर क्या था। चौथे स्तंभ की पूरी भूमिका पर ही सवाल खड़े हो गए। चूंकि लोग घटिया और दोयम दर्जे के नेताओं को देखकर पक चुके हैं। नेताओं के झूठे गल्प को सुन-सुनकर थक चुके हैं। इसलिए अब उन्हें कुछ ऐसा चाहिए जो उन्हें चौंकने पर मजबूर कर दे। हैरान करने वाली खबरें। सनसनीखेज स्थितियां पैदा करने वाली खबरें। अब तक जो हमारे और आपके बीच आम बातचीत में जिन बातों का जिक्र किया जाता था उससे जुड़ी खबरें। वो फिर चाहे भूतप्रेत हो। नाग नागिन हो। ईश्वर का चमत्कार हो। या फिर कुछ और हो। हर ऐसी खबरों को आम जनता देखना चाहती है। आम जनता का मतलब बुद्धिजीवी नहीं। बुद्धिजीवी का मतलब--जिनमें हर बात को नकारने की बुद्धि हो। जिनमें सकारात्मकता का पुट कम और ओढ़ी हुई बुद्धि का दिखावा ज्यादा हो। जो बुद्धि मैथुन के अलावा कुछ और करना नहीं जानते। इसलिए खासकर ऐसे लोग जो बुद्धिजीवी हैं उनमें ऐसी खबरों को न

तीन देवियां

एक नहीं, दो नहीं, तीन देवियां एक साथ तीन-तीन देवियां। तीनों का भार एक साथ एक शो में उठाने की हिम्मत बड़े बड़ों ने नहीं की। लेकिन शाज़ी साहब में वो ताक़त है, जिन्होंने बेखौफ अंदाज में तीनों के साथ बखूबी निभाया है। जिन तीन देवियों का जिक्र बार-बार किया जा रहा है वो भविष्य की तीन देवियां हैं। इनका जिम्मा है दुनियाभर के लोगों का भविष्य बताना। आज आपका दिन कैसा रहेगा? कितनी सफलता मिलेगी? मनचाहा काम कर पाएंगे या नहीं? बॉस से कितनी खटपट रहेगी? बीवी से तनाव रहेगा या नहीं? बगैरह-बगैरह। शो अच्छा है। पहले स्टार न्यूज़ का सबसे ज्यादा टीआरपी देने वाला शो था। हो भी क्यों नहीं एक साथ तीन-तीन देवियां जो हैं। एक से आपका मन भर जाए तो दूसरे को देखिए। अगर दूसरे से भी मन भर जाए तो तीसरे को देखिए। बहुत खूब जोड़ी बनाई है। क्या तिगड़ी है। लेकिन लगता है शाज़ी साहब के इस शो की टीआरपी गिरी है। देवियां वही हैं। शैली भी वही है। अंदाज भी वही है। सबकुछ वही है। संभव है पब्लिक इसलिए अब बोर होने लगी है। या तो पब्लिक को अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं। या फिर उन देवियों में कोई दम नहीं रहा। कुछ तो बात है। वरना अचानक

लोकतंत्र नहीं नोटतंत्र

कमाल हो गया। इन नेताओं को देखकर अब शर्म नहीं आती। आनी भी नहीं चाहिए। शर्म आ गई तो इसका सीधा सा मतलब है आप किसी काम के नहीं है। मतलब ये कि आप नैतिकता, समाज और वगैरह-वगैरह की बातें करने वाले हैं। जिसका अर्थ है आप नकारे है। ठलुए हैं। हमारे कई बौद्धिक मित्र हैं। मीडिया में अच्छा प्रभुत्व रखते हैं। मठाधीश हैं। अपने लठ के बल पर मठ में काबिज हैं। उनकी राय है ठलुए लोग ही नैतिकता की बात करते हैं। जो कुंठित हो जाते हैं वही ज्ञान की सरिता बहाते हैं। या फिर वो ये भी कहते हैं कि जिनको मल उठाने का, बैग उठाने का मौका नहीं मिला वही ऐसी बाते करते हैं। बौद्धिक मित्रों की बातें बड़ी व्यावहारिक हैं। उन्हें जीवन का लक्ष्य पता है। रास्ता पता है। मकसद पता है। इसलिए वो इन घटिया, सड़ी गली सोच में विश्वास नहीं रखते। मैं बार-बार 'बौद्धिक' शभ्द का इस्तेमाल कर रहा हूं इसके पीछे भी उन मित्रों की कृपा है। बौद्धिक होने का मतलब ये नहीं कि बहुत सारी किताबें पढ़ी जाएं। बहुपठित होना बौद्धिक होना कतई नहीं है। कहां से कितना बातें टीप ली जाएं, उन चोरी की गई बातों पर कितने लेख लिख दिए जाए, बड़ी-बड़ी समीक्षाएं प्रकाशि

'लीदी' बनो मस्त रहो

यकीन मानिए, ये 'मालिक के मल' से थोड़ा हटकर है। मालिक का मल ढोने वालों की तादाद बढ़ते देख मैंने सोचा क्यों न मस्ती की लीद के साथ जिया जाए। इसका अपना मज़ा है। आपको लग रहा होगा ये लीद क्या चीज़ है? लीद क्या मल से अच्छी चीज़ है? जवाब है शायद नहीं। लेकिन दिल बहलाने के लिए कुछ तो होना चाहिए। अगर मलवाहक नहीं हैं तो बनिए 'लीदी' यानी लीद ढोने वाला। लोग कहते हैं कि कईयों को मलवाहक बनने का मौका नहीं मिलता। इसलिए वो 'लीदी'बन जाते हैं। पर ऐसा नहीं है दोस्त। ज़िंदगी का एकमात्र फलसफा बदबूदार मल ढोना ही नहीं है। कुंए से निकलकर तो देखो मेरी जान। खुद को धुरंधर आंको पर याद रखो जिस दिन 'लीदियों' के दिन फिरेंगे एक तरफ जश्न और दूसरी तरफ मातम होगा। Every dog has a day, लीदियों के लिए एकमात्र नारा। साहित्यकारों और पत्रकारों में 'लीदियों' से ज्यादा मलवाहक है। चूंकि दोनों बौद्धिकता से सीधा वास्ता रखते हैं इसलिए मलवाहकों की भरमार है। जगह हो न हो पर मल ढोने के लिए सिरफुटौवल चलता रहता है। कहीं कोई मौका ऐसा न छूट जाए जिसका फायदा कोई और उठा ले। और ईमानदारी के नाम पर तमगा हंसते

ब्लॉग मतलब भड़ास?

हिंदी में ब्लॉगगीरी करने वालों और पढ़ने वालों के लिए सबसे बड़ा सवाल- (1)क्या ब्लॉग महज भड़ास का एक जरिया है? (2)क्या ब्लॉग लेखन का पहला मकसद दूसरे को गलियाना ही है? (3)क्या ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी कुंठा निकालने के लिए होना चाहिए? (4)या फिर ब्लॉग सर्जनात्मकता को एक नया आयाम देने का जरिया है? इन सारे सवालों के भाव संभवत: एक जैसे ही है। लेकिन इसका जवाब ढूंढना बहुत जरूरी है। जब से ब्लॉगगीरी में मैंने होश संभाला है तब से प्राय: हिंदी ब्लॉग की हालत और बदतर हुई है। ब्लॉग गाली-गलौच का पर्याय बन गया है। मैंने कई पाठकों को ये कहते सुना है कि किसी का ब्लॉग कोई क्यों देखे और पढ़े? पाठकों के मन में उठा सवाल जायज है। कईयों को ये भी कहते सुना है कि ब्लॉगगीरी तो खलिहरों का काम है--उनकी बात पर क्या ध्यान देना जो खलिहर हैं। एक तो ऐसे ही हिंदी पढ़ने और समझने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। ऐसे में ब्लॉग एक सशक्त जरिया बनकर उभरा है। पर इसे भी हमने गलियाने का एक बेहतरीन जरिया बना लिया है। प्रतिस्पर्धा हर जगह होती है। हिंदी ब्लॉग में होनी भी चाहिए। लेकिन इसे सकारात्मक तरीके से लिया जाए। भाषा की गरिम

मालिक का 'मल'

सृष्टि के निर्माण से ही संभवत: एक मालिक है और ढेर सारे उसके मलवाहक। 'मल' का शाब्दिक अर्थ आप कुछ भी लगा लें- यह आपकी बुद्धि और विवेक पर छोड़ा जाता है। लेकिन उसका तलीय स्वर और अर्थ लगभग एक ही है- ऐसी चीज़ जिसे हमेशा खराब माना जाता रहा हो। जिसकी प्रकृति सड़ांध फैलाना है। आसपास को अपने होने का एहसास कराना। जिसकी छाया मात्र भी स्वच्छता और सुंदरता को बदबूदार बना दे। 'मल' का फिजीकल एक्ज़ीस्टेंश भी अपने कई रूप में हमारे और आपके आसपास विद्यमान रहता है। वो चाहे चमचे के रूप में हो या फिर मालिक, बॉस की आंख हो या फिर आपका दोस्त बनकर आपकी पीठ में छुरा भोंकने वाला हो। बस यह आपकी काबिलियत पर है कि वो कौन है जिसने 'तैलाभिषेक'(तेल लगाने की परंपरा का नाम रूप) में महारत हासिल की है। 'मालिक' के अर्थ में भी व्यापकता है। ऐसा नहीं कि जो नौकरी दे रहा है वही मालिक है। जिसने चाहे अनचाहे आपकी ज़िंदगी को बेहतर करने का आश्वासन दे दिया वही मालिक है। अलग-अलग क्षेत्रों में मालिक की परिभाषा बदल जाती है। जिस भी दफ्तर में मालिक ने आपको काम दिया उसकी तो आप पर कृपा है ही। बस ध्यान ये रखें क

'देखना पढ़ाई में मन न लग जाए'

राहुल के कमरे का दरवाजा बंद था। हॉल में बैठे उसके पापा की नज़र अचानक दरवाज़े पर गई। अरे! राहुल का दरवाजा बंद क्यों है? इतना बोलते-बोलते वो उठे और दरवाजे के पास आए। दरवाज़ा खुला था। धीरे से दोनों दरवाज़े को अलग करते हुए अंदर की तरफ झांका। अंदर कुर्सी पर बैठा राहुल सकपकाया। क्या कर रहे हो बेटा? दरवाज़ा बंद करके अंदर क्या कर रहे थे? पापा कुछ भी तो नहीं। बस ऐसे ही बैठा था। अपने अगले क्रिकेट मैच के लिए स्ट्रैट्ज़ी बना रहा था। सोच रहा था कि कैसे खेला जाए कि पहले से बेहतर किया जाए। ठीक है बेटा। सोचो, सोचो। मुझे अच्छा लगा कि खेल के बारे में ही सोच रहे हो। एक सेकेंड के लिए तो तुमने मुझे डरा ही दिया था.....नहीं नहीं छोड़ो। इतना कहकर वो बाहर आ गए। क्या हो गया? बच्चे पर किस बात के लिए शक कर रहे थे? अपने ही बेटे पर हर समय शक करना अच्छा नहीं है। क्या कर रहे हो? ये मत करो, ये करो। अरे छोड़िए न जो मन में आए उसे करने दीजिए न। नाहक ही परेशान रहते हैं। अरे! नहीं मैं बस ये देख रहा था कि पढ़ाई तो नहीं करने लगा। बस मुझे इसी बात का डर रहता है कि राहुल कहीं किसी दिन ये न कह दे कि पापा मुझे पढ़ाई में मज़ा आता

जुझारुओं के लिए पैगाम

कोई दु:ख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं वही हारा जो लड़ा नहीं -- कुँवरनारायण परिस्थितियां पशोपेश में डाल सकती हैं। किंतु परिस्थितियों को हावी होने से बचाना होगा। समय बलवान है। सबकुछ सिखाता-दिखाता है। व्यक्ति दु:ख-सुख से परे रह नहीं सकता। किंतु इनकी सही परिभाषा क्या है? मनुष्य यदि जूझने पर आमादा हो जाए तो क्या नहीं कर सकता? लोग डराते हैं। समाज ताने देता है। परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती हैं। पर लड़ने से पहले हार जाने वाला सबसे बड़ा कायर है। जूझने में जो मज़ा है वह किसी 'पाने' में नहीं। समझ वही सकता है जिसने पूरे साहस से लड़ाई की हो। सरेंडर कर देना मौत की स्थिति है। किंतु जब तक मौत और जिंदगी का फ़ासला हो, लड़ाई जारी रखनी होगी। दु:ख डिगा सकता है। हिला देता है। बेचैन कर देता है। पर मार नहीं सकता। मरता वही है जो दु:ख को अपने पर हावी होने देता है। समय और समाज उन्हीं के आगे नतमस्तक होंगे जो अंतिम साँस तक अपनी लड़ाई जारी रखते हैं। जीतना जिसका उद्देश्य नहीं, संघर्ष ही जीवन हो। जूझ में ही उद्देश्य निहित है। जीत का आनंद है। खोने और पाने के बीच की जद्दोजहद ही मायने रखती ह

'KUDOS' गीरी

सीन नंबर 1 वाह मजा आ गया! आज तो सर, हमने सबको पीछे छोड़ दिया। लगभग आधा घंटा पहले ख़बर एयर पर थी। सबसे तेज़ और सबसे आगे रखने वाले पानी मांग रहे थे। ऐसे ही करेंगे सर, आपका सिर नीचा नहीं होने देंगे सर। हूं...अच्छा रहा। वाकई मज़ा आ गया। तुमने कमाल कर दिया। देखो, मैं यही रफ्तार और ये जज़्बा चाहता हूं। बस कुछ ज़्यादा नहीं करना है। सबको रुलाकर मारना है। एक अपेक्षाकृत छोटे और दूसरे सबसे बड़े अधिकारी के बीच की बातचीत। बॉस की बातें सुनकर 'क' का मन गदगद हो गया। मन ही मन उसे न जाने क्यों ऐसा एहसास होने लगा कि अब तो बेड़ा पार है। इस बार कोई नहीं रोक सकता...। बुदबुदाया, सा.........देख लेंगे। बड़ा बनता है न! छोड़ेंगे नहीं। बॉस और 'क' के बीच की बातचीत आपस में हुई। वहां एकाध जूनियर ही मौजूद रहे होंगे। इसलिए शंका ये थी कि अगर बॉस ने इस बात का ज़िक्र किसी से नहीं किया तो फिर सारा किया धरा पर पानी फिर जाएगा। हालांकि मंजिल बॉस ही थे। पर इसके बारे में सबको जानना उतना ही जरुरी था जितना अपने हमसैलरी और हमओहदे वाले की बुराई करना। मन में छटपटाने लगा। कैसे इसको सार्वजनिक किया जाए। जब ज्यादा कुछ न

बदल गई परिभाषा

"पत्रकार और साहित्कार में कोई अंतर है क्या? मैं मानता हूं कि नहीं है। इसलिए नहीं कि साहित्कार रोजी के लिए मीडिया में नौकरी करते हैं, बल्कि इसलिए पत्रकार और साहित्यकार दोनों नए मानव संबंध की तलाश करते हैं। दोनों ही दिखाना चाहते हैं कि दो मनुष्यों के बीच नया संबंध क्या बना। दोनों के उद्देश्य में पूर्ण समानता है। कृतित्व में समानता कमोबेश है। पत्रकार जिन तथ्यों को एकत्र करता है उनको क्रमबद्ध करते हुए उन्हें परस्पर संबंध से विच्छिन्न नहीं करता जिससे वे जुड़े हुए और क्रमबद्ध हैं। उसके ऊपर तो यह लाजिमी होता है कि वह आपको तर्क से विश्वस्त करे कि यह हुआ तो यह इसका कारण है, ये तथ्य हैं और ये समय, देश, काल परिस्थिति आदि हैं जिनके कारण ये तथ्य पूरे होते हैं। "( लिखने का कारण- रघुवीर सहाय-पृष्ठ-177) सहाय जी ये पंक्तियां उद्धत करने का मेरा मक़सद ये नहीं है कि मैं किसी को ये बताऊं कि कोई पत्रकार और साहित्यकार क्यों बना और क्यों बनना चाहता है। मैं सिर्फ ये इशारा करना चाहता हूं कि सामाजिक संरचना के टूटने और उसके बिखरने के पीछे जो प्रेरक तत्व काम कर रहे हैं उसे सही तरीक़े से दर्शाया जा रहा है

'बाज़ार में सब नंगे हैं'

एक समय था जब समाज में बिकाऊ लोगों को बड़ी खराब नज़र से देखा जाता था। जो बिक जाते थे वो उस पर पर्दा करते फिरते थे। सबसे ज्यादा डर इस बात का होता था कि लोगों को किसी भी सूरत में इस बात की जानकारी न हो। बल्कि ये शर्त रखी जाती थी कि इसके बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए। और अगर पता चला तो फिर खैर नहीं। गवाह भी इस बात को उसी समय दफना देते थे। समय बदला समाज बदला। कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। समाज में तमाम परंपराएं विखंडित हुईं। समझदारों ने उन परंपराओं को मानने वालों को पिछड़ा और गंवार की संज्ञा दी। इसी देखा-देखी में लोग एडवांस कहलाने की होड़ में जुट गए। बस क्या था। सारी परिभाषाएं बदल गईं। नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन की ऐसी मार पड़ी कि हर संबंध में अर्थ घुस गया। जीवन औऱ मृत्यु को छोड़कर हर चीज पैसे के तराजू पर चढ़ गई। खरीरदार की तूती बोलने लगी। वो चौड़ा होकर धूमने लगे। अपने दम खम पर किसी को भी नंगा करने की बोली बोलने लगे। अभी दो दिन पहले किस क़दर खरीरदारों ने क्रिकेट खिलाड़ियों को नंगा किया-इसको दुनिया ने लाइव देखा। वाह मज़ा आ गया। वर्षों की मेहनत और लगन को एक झटके में न

मीडिया का राखी प्रेम

न्यूज़रूम में हर कोई गदगद। मजा आ गया। क्या ख़बर हाथ लगी है। टीआरपी तो पक्का मिलेगी। छा गए गुरु। मैदान मार लिया। इस बार नंबरदार चैनलों से हमारी टीआरपी भी बहुत पीछे नहीं रहेगी। एक अनुभवी पत्रकार ने कहा राखी सावंत हमेशा से टीआरपी देती रही है। राखी टीआरपी माता है। दूसरे ने टोका-नहीं नहीं माता कहकर माताओं का अपमान। तीसरे ने कहा-अरे क्या बात करते हो, राखी को माता कहकर आपने राखी का अपमान किया है। इसके लिए आपको भरे न्यूजरूम में माफी मांगनी पड़ेगी। सब लोग जोर से हंस पड़े। दरअसल राखी सावंत ने निहायत ही फूहड़ तरीके से अपने पिछलग्गू बॉयफ्रेंड अभिषेक के साथ मीडिया का मजाक उड़ाया। राखी और अभिषेक ने मीडिया को कालिख पोतते हुए सबको खूब बेवकूफ बनाया। वैलेंटाइन डे से पहले दोनों ने बकायदा मीडिया में खबर पहुंचवाई की उनकी दोस्ती टूट गई। खबरों में आगे रहने वाले चैनलों ने दोनों का फोनो इंटरव्यू भी चलाया। वाह-वाही भी लूटी। और वैलेंटाइन डे के दिन नेशनल मीडिया के सामने दोनों की दोस्ती फिर से पुख्ता हो गई। वाह क्या दोस्ती है। कैमरे के लिए सबकुछ चलता है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कोई औऱ नहीं मीडिया ही है। उनके मुंह

कहां भटक रहा तेरा 'हंसा'

90 के दशक के बाद साहित्य में विधाओं की सारी सीमाएं ध्वस्त हो गई। उपन्यास, संस्मरण, यात्रा वृतांत और कहानियों में कोई बाहरी दीवार नहीं रही। हर विधा एक दूसरे में समाहित होकर नया अर्थ पाने की कोशिश में है। लेकिन साहित्य में दो परंपराएं हमेशा से बनी रही हैं। चाहे आदिकाल का साहित्य रहा हो, भक्ति काल का या फिर रीति काल का। एक खेमा सत्ता विरोधी साहित्यकारों का रहा है और एक दूसरा भाट कवियों का। खूब वाहवाही की और बदले में तमाम सुख सुविधाएं मिलीं। ऐसा नहीं कि आधुनिक काल में इस परंपरा में कोई कमी आई। बल्कि उत्तरआधुनिकता के बाद दूसरी परंपरा में असमान रुप से वृद्धि हुई। उसी का एक जीता जागता और हर तरह से परिपूर्ण है उदाहरण 'हंस' पत्रिका का जनवरी अंक। हंस पत्रिका का जनवरी अंक खास तौर से समर्पित है दलित साहित्य के लिए। बाबा साहेब के जन्म दिन को ध्यान में रखते हुए संपादक मंडल ने सही समय चुना। ज़ाहिर है 90 के बाद दलित साहित्य और स्त्री विमर्श पर लगातार काम हो रहा है। अच्छा भी है। इस लिहाज से हंस का दलित साहित्य का अंक देखकर अच्छा भी लगा। लेकिन जैसे-जैसे उसका पढ़ना शुरु किया, एकदम से समझ आ गया कि

विडंबना

प्राय: जलने वाली चीज़ें बीड़ी या सिगरेट होती है जिसे, आखिरी कश के बाद कुचल दिया जाता है इस सच्चाई से हर 'लघु मानव रू-ब-रू है। ('लघु मानव' टर्म प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार विजयदेव नारायण साही का है।) दरअसल इस वैश्वीकरण के दौर में होड़ है आगे चलने की। मंजिल पर पहुंचने की। मंजिल कहां है? दौड़ने वाले को स्पष्ट नहीं है। दूसरों को देखकर, दूसरों की तरह जीने की लालसा मंजिल बन जाती है। खूब तरक्की, बड़ा ओहदा और अपने वृत्त में यश। पर सच मानिए, ये मंजिल नहीं है। ये तो दूसरों को देखकर देखा गया सपना है। लेकिन इन सपनों को पाने में पूरी ज़िंदगी लग जाती है। पूरी ज़िंदगी से मतलब है संवेदना, ऊर्जा और आत्मीयता को लगातार होम करना पड़ता है। महानगरों की ज़िंदगी का स्थाई भाव सिर्फ और सिर्फ यही है। यही स्थाई भाव देश के दूसरे हिस्सों में निरंतर प्रवाहित हो रहा है। महानगरों का एक और स्थाई भाव होता है विडंबना। यहां बिना मतलब के, बिना ज़रूरत के लोगों परिवार वालों से भी नहीं मिलते। ऐसा नहीं कि पारिवारिक संबंध में दुराग्रह है। बल्कि समय की कमी। इसकी बड़ी वजह है दूरी। यही दूरी धीरे-धीरे संबंधों में भी पर

'रैकेट' की महिमा

'रैकेट'। आज की तारीख में सबसे प्रचलित शब्द। अगर रैकेट है तो जीवन सार्थक। और अगर रैकेट नहीं है तो सब बेकार। ऐसा नहीं कि ये शब्द महज महानगरों के लिए उपयोगी है। इसका विस्तार तो हर क्षेत्र और हर स्तर पर हुआ है। रैकेट का पर्याय है बढ़िया मैनेजर। जानकारों का मानना है कि बिना रैकेट के न तो कोई अच्छा मैनेजर हो सकता है और न ही वो किसी बेहतर काम को अंजाम दे सकता है। आप अगर नज़र दौड़ाएंगे तो आपको हर तरफ ऐसे लोग आसानी से मिल जाएंगे। कुछ धुरंधर रैकेटियर और कुछ उस प्रक्रिया में अग्रसर। देशकाल और समय दोनों में रैकेट की इतनी ज़रूरत है कि अगर आपने इस दिशा में काबिलियत हासिल नहीं कि तो आप अनफिट हैं। जी हां, आप नकारे और महज दो कौड़ी के करार दिए जाएंगे। ये और बात है कि जिनके पास रैकेट है वो भी दो कौड़ी के ही होते हैं। न कम न ज्यादा। अनफिट का सीधा मतलब है आपका चालाक न होना। तिकड़मी राजनीति में बुद्धू। समय को देख परख कर काम न करने वाला। संभव है आप एकदम सही हों पर उसका क्या मतलब। वो किसी के काम नहीं आएगा। मैनेजर तो वो है जो खुद का ज्यादा और दूसरों का कम ध्यान रखे। खुद की लकीर बड़ी करने की कोशिश करे।

काश! ये साल न आता

12 जनवरी से आगे ------------------ निरंजन को समझ नहीं आया कि क्या हो गया। वो धड़ाम से सड़क के उपर उछला और धम्म से गिरा। कुछ देर पहले तक बीवी,बच्चे और बुढ़ी मां के लिए सपने बुनने वाले निरंजन की आंखों के सामने स्याह और लंबी आकृति नाचने लगी। और फिर उसकी आंखों ने हमेशा के लिए सपने देखना बंद कर दिया। घर का चिराग सड़क पर चली तेज आंधी में बुझ गया और देखते ही देखते खो गया। लड़खड़ाती गाड़ी से एक सज्जन निकले। उन्होंने गालियों की बौछार कर दी। लेकिन उन पढ़े लिखे सज्जन की हालत ऐसी थी कि वो ठीक से खड़ा बी नहीं हो पा रहे थे। नए साल का जश्न मनाकर किसी होटल से लौट रहे थे। उन्हें पता था कि गलती उनकी है पर वो इस बात को मानते कैसे। महानगर के कल्चर है अपनी गलतियों पर पर्दा डालना और दूसरों पर थू-थू करना। अगर आदत नहीं है तो लोग इसे अर्जित कर लेते हैं। तभी कहीं से पीसीआर वैन आ गई। पुलिस ने निरंजन को जैसे तैसे उठाया और पास के अस्पताल में भर्ती कराया। लेकिन निरंजन की किस्मत में नया साल देखना नहीं लिखा था। पुलिस ने उन अंग्रेजी दां सज्जन को गिरफ्तार किया। लेकिन तमाम बड़े लोगों की पैरवी और सिफारिश के आगे पुलिस नतम

खुली किताब: काश! ये साल न आता

खुली किताब: काश! ये साल न आता आज भी उसके घर में चूल्हा तो जलता है पर खाने की इच्छा किसी की नहीं होती। उसका 4 साल बेटा मां से रोज़ पूछता है---पापा कब आएगें? इतने दिन हो गए पापा, कहां चले गए? बताओ ने मम्मी पापा हमारे घर क्यों नहीं आते? इन सवालों का जवाब उसकी पत्नी के पास है ही नहीं। उसे समझ में नहीं आता कि बेटे को कैसे समझाए.....अब उसके प्यारे पापा कभी नहीं आएंगे। इन सवालों के जवाब में वो सिर्फ इतना ही कहती है काश! ये नया साल नहीं आता। नए साल से ठीक एक दिन पहले निरंजन की मौत हो गई। वजह बनी सड़क दुर्घटना। लेकिन असली वजह थी ज़िंदगी की जद्दोजहद। परिवार का पेट भरना। बेटे को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने का और बीवी को उसकी मनपसंद चीजें दिलाने की ख्वाहिश। अपने घर की ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उसने लोन लेकर आईसक्रीम का ढेला खरीदा। दस हजार की पूंजी लगाकर आईसक्रीम बेचने का धंधा शुरू किया। पुलिस वालों को पैसा देकर इंडिया गेट के पास ढेला लगाया। वो रोज़ाना लगभग 300 रुपए तक की कमाई कर लेता था। लेकिन 31 दिसंबर की रात को ज्यादा से ज्यादा कमाई करने के चक्कर में जुटा रहा। चूंकि नए साल के जश्न में इंडिया

काश! ये साल न आता

दोस्तों, क़ायदे से तो हर दिन नया होता है। हर साल नया होता है। पर एक परंपरा दुनिया भर में चली आ रही है। 31 दिसंबर को मौज मस्ती और गुल्छर्रे उड़ाना हमारी वार्षिक दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। पर क्या कोई दिन ज़िंदगी से बड़ा हो सकता है? शायद नहीं। लेकिन आम तौर पर एक मानसिकता बन गई है कि साल भर का सारा पाप आखिरी दिन खत्म कर देना चाहिए। अगली सुबह से नए तरह का पाप जो करना है। ऐसे में रात जितनी रंगीन गुज़रे उतना ही समाज में, दोस्तों में हांकने में मज़ा आएगा। इस चक्कर में अक्सर हम भूल जाते हैं कि हमारे अलावा और भी ज़िंदगियां हैं जो बेहतर जीवन की तलाश में हैं। बस यहीं चूक होती है।..........क्रमश: