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कहां भटक रहा तेरा 'हंसा'

90 के दशक के बाद साहित्य में विधाओं की सारी सीमाएं ध्वस्त हो गई। उपन्यास, संस्मरण, यात्रा वृतांत और कहानियों में कोई बाहरी दीवार नहीं रही। हर विधा एक दूसरे में समाहित होकर नया अर्थ पाने की कोशिश में है। लेकिन साहित्य में दो परंपराएं हमेशा से बनी रही हैं। चाहे आदिकाल का साहित्य रहा हो, भक्ति काल का या फिर रीति काल का। एक खेमा सत्ता विरोधी साहित्यकारों का रहा है और एक दूसरा भाट कवियों का। खूब वाहवाही की और बदले में तमाम सुख सुविधाएं मिलीं। ऐसा नहीं कि आधुनिक काल में इस परंपरा में कोई कमी आई। बल्कि उत्तरआधुनिकता के बाद दूसरी परंपरा में असमान रुप से वृद्धि हुई। उसी का एक जीता जागता और हर तरह से परिपूर्ण है उदाहरण 'हंस' पत्रिका का जनवरी अंक। हंस पत्रिका का जनवरी अंक खास तौर से समर्पित है दलित साहित्य के लिए। बाबा साहेब के जन्म दिन को ध्यान में रखते हुए संपादक मंडल ने सही समय चुना। ज़ाहिर है 90 के बाद दलित साहित्य और स्त्री विमर्श पर लगातार काम हो रहा है। अच्छा भी है। इस लिहाज से हंस का दलित साहित्य का अंक देखकर अच्छा भी लगा। लेकिन जैसे-जैसे उसका पढ़ना शुरु किया, एकदम से समझ आ गया कि