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इस प्यार को क्या नाम दें...

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विकास के इस दौर में मैंने अपने अहाते में अबतक साँस ले रहे नींबू के गाछ से सारे फल तोड़ लिए हैं। डर है, पता नहीं विकास और आस्था के घालमेल में वो शहीद न हो जाए। जब विकास के नाम पर मुंबई के आरे इलाके दो हज़ार से ज्यादा पेड़ शहीद हो गए तो फिर नींबू के गाछ की क्या औकात। वैसे भी आस्था के सामने किसी की औकात नहीं देखी जाती। देखी जाती है सिर्फ नियत और स्वार्थ। वैसे, आस्था और नींबू का पुराना याराना है। आस्था जब भी सामने खड़ी होती है नींबू सरेआम तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता है और उफ! तक नहीं करता। प्रीत का ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले। पर पता नहीं, यह प्रीत, बिहार के पकड़ुआ विवाह जैसा तो नहीं है। राह चलते लड़के को उठाया और सीधा मंडप में लैंड कराया। यही हाल आस्था और नींबू के साथ तो नहीं है। आस्था कहीं और चिपकी है और नींबू को मिर्च के गठबंधन के साथ आस्था के गले में जबरन लटक बना दिया जाता है। बेचारी आस्था। न चाहते हुए भी नींबू का भार उठाती रही है। और नींबू, पर्यावरण की दुहाई देकर सूली पर चढ़ जाता है। मुझे मालूम है आप कह सकते हैं मेरे अंदर संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की भारी कमी है। यह आरोप सर्वथा