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भक्त, भक्ति और भगवान…समाज गया तेल लेने

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मेरे एक काबिल दोस्त हैं। भक्ति में दिन रात सांगोपांग डूबे रहते हैं। किसकी भक्ति, यह मत पूछिए। भक्ति का आलम यह है कि मेरे दोस्त को खुद और अपने भगवान के आगे कुछ नहीं सूझता। सूझना भी नहीं चाहिए। फिर भक्त काहे का। आजकल की भक्ति में एक कमी है। नियत ठीक नहीं है। मेरे दोस्त खुद की दुकान ऊंची करने के चक्कर में लगे रहते हैं। स्वार्थ में आकंठ डूबे रहते हैं। ज़ुबा पर ‘भगवान’ का नाम और मन में स्वार्थ की अनंत अट्टालियाकाएं। नए सिरे से भक्ति में डूबे इस न्यू इंडिया में सबकुछ नया है। भक्ति की परिभाषा। भक्त होने की शर्तें। भगवान कहलाने की उच्चाकांक्षाएं। इन सबके के साथ नए समाज को गढ़ने की नई कोशिशें। वाकई उत्तरआधुनिकता, इस देश में इससे पहले इतनी शिद्दत से महसूस नहीं किया गया होगा। मेरे दोस्त तो हमेशा इस बात से सहमत रहते हैं कि पुरानी सारी चीज़ें बहुत पुरानी हैं। वो बार-बार लोगों को हिदायत देते हैं और कहते हैं कि पुराने ढर्रे से निकलिए। नए तरीके से न्यू इंडिया में सोचिए। पता नहीं मेरे दोस्त अपने माँ-बाप को अब माँ-बाप मानते हैं या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने भगवान और भक्ति के आगे माँ-बाप को य