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मठाधीशों और चमचों की जमात

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मित्रों, हंस के सितम्बर अंक में मेरी-तेरी उसकी बात में राजेंद्र यादव ने आखिरकार अपनी पुरानी कुंठा उजागर कर दी। अपनी पत्रिका है वो चाहे जो लिखें। किसी के बाप की हिम्मत है जो उन्हें रोक ले। उन्होंने शुरुआत परसई जी की लघुकथा से की है--सुबह-सुबह एक नेता तलवार लेकर बैठ गए। 'आज तो अपनी गर्दन काटकर रहूंगा' आसपास के लोग जितना ही समझाने की कोशिश करते, उतनी ही उनकी जिद्द बढ़ती जाती कि नहीं, आज तो यह गर्दन कटकर ही रहेगी. लोगों ने पूछा कि कोई तो कारण होगा ? झल्लाकर बोले, यह भी कोई गर्दन है जिसमें सात दिनों से कोई माला ही नहीं पड़ी. अब इस गर्दन की खैर नहीं... ये बातें राजेंद्र यादव जी ने नामवर जी के लिए लिखी। उन्होंने कहा कि मैं सोचता हूं कि नामवर जी को भी क्या कभी ऐसी पवित्र बेचैनी होती होगी कि दो दिन हो गए, किसी ने अध्यक्षता करने नहीं बुलाया ? नामवर जी हर गोष्ठी में शाश्वत अध्यक्ष या फिर अंतिम वक्ता होते हैं। जाहिर है नामवर बड़े साहित्यकार है। एक जमात है उनके साथ। स्वार्थ और अवसर के साथ जुड़े लोग। राजेंद्र यादव भी बड़े साहित्यकार हैं। अपनी पत्रिका की धौंस से साहित्य में महिलाओं और दलितों