लोकतंत्र नहीं नोटतंत्र

कमाल हो गया।
इन नेताओं को देखकर अब शर्म नहीं आती।
आनी भी नहीं चाहिए। शर्म आ गई तो इसका सीधा सा मतलब है आप किसी काम के नहीं है। मतलब ये कि आप नैतिकता, समाज और वगैरह-वगैरह की बातें करने वाले हैं। जिसका अर्थ है आप नकारे है। ठलुए हैं। हमारे कई बौद्धिक मित्र हैं। मीडिया में अच्छा प्रभुत्व रखते हैं। मठाधीश हैं। अपने लठ के बल पर मठ में काबिज हैं। उनकी राय है ठलुए लोग ही नैतिकता की बात करते हैं। जो कुंठित हो जाते हैं वही ज्ञान की सरिता बहाते हैं। या फिर वो ये भी कहते हैं कि जिनको मल उठाने का, बैग उठाने का मौका नहीं मिला वही ऐसी बाते करते हैं। बौद्धिक मित्रों की बातें बड़ी व्यावहारिक हैं। उन्हें जीवन का लक्ष्य पता है। रास्ता पता है। मकसद पता है। इसलिए वो इन घटिया, सड़ी गली सोच में विश्वास नहीं रखते। मैं बार-बार 'बौद्धिक' शभ्द का इस्तेमाल कर रहा हूं इसके पीछे भी उन मित्रों की कृपा है। बौद्धिक होने का मतलब ये नहीं कि बहुत सारी किताबें पढ़ी जाएं। बहुपठित होना बौद्धिक होना कतई नहीं है। कहां से कितना बातें टीप ली जाएं, उन चोरी की गई बातों पर कितने लेख लिख दिए जाए, बड़ी-बड़ी समीक्षाएं प्रकाशित करवाई जाए--बौद्धिक होने का मतलब ये है। बहरहाल बात नेताओं से शुरु की गई थी।

नेताओं की हरकतों पर शर्म इसलिए नहीं आती क्योंकि उनकी जड़ में मेरे बौद्धिक मित्र हैं। सोच बौद्धिक मित्रों जैसी ही है। अगर लोकतंत्र के मंदिर में गाल-गलौच न हो, पैसे की नुमाइश न हो तो फिर क्या होगा। हैरत की बात तो देखिए हमारे-आपके जैसे लोग तो जिंदगी भर एड़ी रगड़कर एक करोड़ कमा लें तो उपलब्धि होगी। लेकिन संसद में एक करोड़ रुपए की गड्डियों की नुमाइश इस तरह की गई जैसे बात पांच-दस हज़ार रुपए की हो रही हो।

रुपए जिसने भी दिखाए, आरोप चाहे जिसपर लग रहे हैं पर एख बात तो तय है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में अब पैसे का लोकतंत्र शेष रह गया है। जो जितना बड़ा दलाल, जिसके पास दलाली की जितनी ज्यादा बौद्धिकता, जो फर्राटे से जितने लोगों का गला काट सकता हो---आज देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा रखवाला वही है।

दुनिया साक्षी है अगर करोड़ों रुपए का लेना-देना नहीं होता तो ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार नहीं बचती। कोई पूछने वाला है कि ये पैसे कौन दे रहा है। कहां से आ रहे हैं पैसे। आम आदमी के लिए जो सपना है नेताओं के लिए हाथ का मैल है। वाह रे नेता। चोरों की जमात। बीजेपी को तकलीफ इस बात है कि उसे मौका नहीं मिला। अगर मौका मिला भी तो वो सरकार गिरा नहीं पाई।

दुख इस बात का नहीं है कि स्वतंत्र देश में नेता सिर्फ अपनी चर्बी का ख्याल रख रहे हैं दुख इस बात का है कि हम एक ऐसे लोकतंत्र का हिस्सा हैं जिसमें अगले 20 साल तक भी कोई खास संभावना नजर नहीं आती। दलाली और बढ़ेगी। न तो घूस देने वाले कम होंगे न ही लेने का मुंह बंद होगा।

क्या वक्त आ गया है कि फिर से लोकतंत्र को नजरबंद किया जाए। इमरजेंसी लगाई जाए। अगर नहीं तो उपाय क्या है। आप बताइए। आपके सुझाव का स्वागत है।

टिप्पणियाँ

राज भाटिय़ा ने कहा…
दुनिया साक्षी है अगर करोड़ों रुपए का लेना-देना नहीं होता तो ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार नहीं बचती। कोई पूछने वाला है कि ये पैसे कौन दे रहा है। कहां से आ रहे हैं पैसे। अजी कोई ईमान दार से थोडे पुछेगा, वो तो हे ही ईमान दार,
हे भगवान अगली बार ऎसा ईमान दार मेरे देश को मत देना

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