एनकाउंटर का खौफ



दिल्ली के जामिया नगर के बाटला हाऊस में एनकाउंटर। एक तरफ दिल्ली पुलिस के दावे और दूसरी तरफ बाटला हाऊस में रहने वाले लोगों की बातें। जाहिर है दोनों में सच तो कोई एक ही है। या तो वहां से निवासी या फिर दिल्ली पुलिस। एनकाउंटर पर तमाम पत्रकार और बुद्धिजावी सवाल उठा रहे हैं। उनके पास अपने तर्क हैं। पुलिस की बात को सही मानने वाले बौद्धिक मैथुन करने वालों की भी कमी नहीं। अपनी-अपनी काबिलियत माफिक हर कोई बहस को तैयार है। चलिए दोनों पक्ष के बौद्धिक जनों की बातों को भी स्वीकार कर लिया जाए। बड़ी अच्छी बातें ऐसे लोग अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं। मुझे पता चला कि तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों की मीटिंग में इन बातों पर काफी गरमा-गरम बहस हो रही है। पुलिस का पक्ष लेने वालों को बीजेपी से सीधे तौर पर जोड़ा जा रहा है और जो पुलिस के एनकाउंटर पर सवाल खड़े कर रहे हैं उन्हें वामपंथी माना जा रहा है। सुनने में आया है कि तमाम न्यूज चैनलों के न्यूज रूम में भी लोग खुलेआम पुलिस का पक्ष लेते दिख रहे हैं और मुस्लमानों को अप्रत्यक्ष रुप से सुना भी रहे हैं। कुछ बदतमीज और बेबाक लोग खुलेआम अपनी आरएसएस वाली चड्ढी दिखाने को आतुर हैं।

इन सब के बीच में एक सवाल लगातार खड़ा हो रहा है।
जो बच्चे जामिया में पढ़ रहे हैं। जो छात्र बाटला हाऊस में रह रहे हैं उनमें एनकाउंट का खौफ क्यों पैदा किया जा रहा है?
उन मुस्लिम बच्चों को भी दबी जुबान में आतंकवाद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है?
ऐसे बच्चे जो आजमगढ़ से आकर यहां रह रहे हैं उन्हें आतंकियों से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है?
मकान मालिक मुस्लमान बच्चों को किराये पर कमरा देने से साफ क्यों मना कर रहे हैं?
खुलेआम समाज में ऐसा भेद क्यों किया जा रहा है?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आने वाले समय में समाज विभाजन के लिए जिम्मेदार साबित होंगे। धमाकों की लगातार बढ़ती वारदात से जाहिर है ये सारे सवाल उन तमाम जगहों पर जवाब मांगेंगे जहां ब्लास्ट हो रहे हैं। अब तक धमाकों को समाज एक नजरिए से देखता था। चूंकि दहशतगर्दों के लिए हिंदू और मुस्लिम बराबर हैं। खून दोनों के बह रहे हैं। लेकिन बीच में कोई समाज का ठेकेदार है जो दोनों तरफ आग लगाने में जुटा है। हालत ये है कि जामिया यूनिवर्सिटी में जो बच्चे पढ़ रहे थे, एनकाउंट के बाद बेतहाशा घर भाग रहे हैं। उनके मां बाप को डर है कहीं पुलिस उनके बच्चों को भी उठाकर न ले जाए और आतंकवादी घोषित कर दे। ऐसा हो जाएगा तो फिर क्या होगा?

पुलिस के इस नजरिए का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जिनका किसी मुस्लिम से 36 का आंकड़ा रहा है। लोग सोचते हैं मौका अच्छा है खेल डालो हिंदू मुस्लिम का कार्ड। पुलिस मदद करेगी ही। इंडियन आर्मी में एक कहावत है---आतंकी सबसे अच्छा तब लगते हैं जब उन्हें गोली मार दी जाती है और वो मर जाते हैं। मैं भी इसी पक्ष में हूं। पर उन लोगों का क्या होगा जिन्हें जबरन आतंकी बनाकर मौत के घाट उतार दिया जा रहा है। मैं जानता हूं एक इंस्पेक्टर शर्मा की मौत ने पूरे पुलिस विभाग को झकझोर दिया। उनक घर को तोड़ दिया। लेकिन मेरा सीधा सा सवाल ये है कि उनके बुढ़े बाप और कब्र में पांव लटाई मां का क्या होता होगा जिनके बेगुनाह बेटे को आतंकी बनाकर मार दिया जाता है। क्या इनकी हालत उनके जैसी नहीं है जिन्होंने धमाकों में अपना सब कुछ खो दिया?

कौन है इसके लिए जिम्मेदार? पुलिस या फिर समाज।

टिप्पणियाँ

Hari Joshi ने कहा…
आपकी किताब में दो किताबों के पन्‍ने अदला-बदली हो गए हैं। एक तरफ आप कह रहे हैं-
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आने वाले समय में समाज विभाजन के लिए जिम्मेदार साबित होंगे। धमाकों की लगातार बढ़ती वारदात से जाहिर है ये सारे सवाल उन तमाम जगहों पर जवाब मांगेंगे जहां ब्लास्ट हो रहे हैं। अब तक धमाकों को समाज एक नजरिए से देखता था। चूंकि दहशतगर्दों के लिए हिंदू और मुस्लिम बराबर हैं। खून दोनों के बह रहे हैं। लेकिन बीच में कोई समाज का ठेकेदार है जो दोनों तरफ आग लगाने में जुटा है। हालत ये है कि जामिया यूनिवर्सिटी में जो बच्चे पढ़ रहे थे, एनकाउंट के बाद बेतहाशा घर भाग रहे हैं। उनके मां बाप को डर है कहीं पुलिस उनके बच्चों को भी उठाकर न ले जाए और आतंकवादी घोषित कर दे। ऐसा हो जाएगा तो फिर क्या होगा?
ये बिल्‍कुल जायज बात है लेकिन दूसरी तरफ पुलिस की गोलियों से मारे गए बदमाशों या आतंकवादियों की तुलना ब्‍लास्‍ट में मारे गए लोगों से कर रहें हैं जो गलत है। इंस्‍पेक्‍टर मोहन शर्मा किसकी गोली से मरे। उन्‍हीं लोगों की जिनकी तलाश में वह बाटला हाउस पंहुचे थे। मैं ये नहीं कह रहा कि पुलिस फेक एनकाउंटर नहीं करती लेकिन इस मामले में इंस्‍पेक्‍टर ने गोली खाई है और वह गोलियां उसी कमरे से चली थीं, ये पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट भी इशारा करती है। आपका ये कहना उचित नहीं है-
मेरा सीधा सा सवाल ये है कि उनके बुढ़े बाप और कब्र में पांव लटाई मां का क्या होता होगा जिनके बेगुनाह बेटे को आतंकी बनाकर मार दिया जाता है। क्या इनकी हालत उनके जैसी नहीं है जिन्होंने धमाकों में अपना सब कुछ खो दिया?

कौन है इसके लिए जिम्मेदार? पुलिस या फिर समाज।
buddhi ko band rakh kar ektarfa sochne walo ne hi aatankvaad ko badhawa diya hai, lage raho,kabhi n kabhi rajya-sabha ka ticket mil hi jaayega,

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