न्यूज चैनल पर साईं की कृपा


वक्त बदला। समाज बदला। लोगों की सोच में परिवर्तन आया। चीजों को देखने का नजरिया बदला। इसमें सबसे ज्यादा बदलाव आया टीवी में। खासकर टीवी न्यूज में। एकदम से उसकी परिभाषा बदल गई। चूंकि प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी इसलिए खबरें भी बदलने लगीं। फिर क्या था। चौथे स्तंभ की पूरी भूमिका पर ही सवाल खड़े हो गए। चूंकि लोग घटिया और दोयम दर्जे के नेताओं को देखकर पक चुके हैं। नेताओं के झूठे गल्प को सुन-सुनकर थक चुके हैं। इसलिए अब उन्हें कुछ ऐसा चाहिए जो उन्हें चौंकने पर मजबूर कर दे। हैरान करने वाली खबरें। सनसनीखेज स्थितियां पैदा करने वाली खबरें। अब तक जो हमारे और आपके बीच आम बातचीत में जिन बातों का जिक्र किया जाता था उससे जुड़ी खबरें। वो फिर चाहे भूतप्रेत हो। नाग नागिन हो। ईश्वर का चमत्कार हो। या फिर कुछ और हो। हर ऐसी खबरों को आम जनता देखना चाहती है।

आम जनता का मतलब बुद्धिजीवी नहीं। बुद्धिजीवी का मतलब--जिनमें हर बात को नकारने की बुद्धि हो। जिनमें सकारात्मकता का पुट कम और ओढ़ी हुई बुद्धि का दिखावा ज्यादा हो। जो बुद्धि मैथुन के अलावा कुछ और करना नहीं जानते। इसलिए खासकर ऐसे लोग जो बुद्धिजीवी हैं उनमें ऐसी खबरों को न तो देखने की क्षमता है न ही इसे पचाने की। अगर वो इसे सहजता से स्वीकार करने लगे तो फिर उन्हें बुद्धिजीवी की श्रेणी के काट दिया जाएगा।

इन दिनों टीवी न्यूज चैनल पर साईं की कृपा अपरमपार है। हर दूसरे न्यूज चैनल पर साईं दिख रहे हैं। साईं को देखकर लगता है कि हम न्यूज चैनल नहीं भक्ति चैनल देख रहे हैं। ऐसे में मेरा सवाल ये है कि न्यूज चैनल समाज से अलग तो है नहीं। जो समाज में घटित है उसको दिखाना न्यूज चैनल वालों का पहला कर्तव्य है। अगर साईं रोज़-रोज़ न्यूज चैनल पर नज़र आ रहे हैं तो इसमें क्या बुरा। सिर्फ पत्रकारिता का लबादा ओढ़कर किसी को गाली देना आपको महान नहीं बना सकता। मेरा बड़ा सीधा सा सवाल है---अगर न्यूज चैनल सिर्फ भक्ति दिखाता है तो फिर दर्शक उसे देखना छोड़ क्यों नहीं देते। दर्शक पूरा प्रोग्राम भी देखते हैं उसके बाद गाली भी देते हैं। टिपिकल मध्यवर्ग का चरित्र। मुक्तिबोध का मध्यवर्ग। जो मौके के हिसाब से खुद को बदलने में माहिर है।

लेकिन याद रहे। बम विस्फोट में न्यूज चैनल धमाकों से जुड़ी खबरे दिखाने से कोई परहेज नहीं करता। बल्कि धमाकों के बाद लोग कहते हैं रात-दिन सिर्फ धमाकों से जुड़ी खबरें दिखाकर पका दिया। दरअसल सच्चाई ये है कि लोगों में सहनशीलता रह ही नहीं गई है। अगर संसद में परमाणु करार पर बहस जारी है तो लोग लोक सभा टीवी देखते हैं। लेकिन क्यों। क्योंकि डिस्कशन से जो मनोरंजन हो रहा है वो उस समय किसी और खबरों से नहीं है। लालू की फूहड़ बातें सुनने में सबको दिलचस्पी है। पर किसी सीरियस इशू पर बोलने वाले लोगों को सुनने वाले बहुत कम लोग है।

आज कल एक फैशन चल पड़ा है टीवी न्यूज चैनल को गाली देना। 'हंस' में स्तंभकार है मुकेश कुमार। खुद टीवी न्यूज से जुड़े रहे हैं। पर शर्म नहीं आती जब वो बौद्धिक मैथुन करते हैं। ज्ञान खूब लंबा देते हैं। पर करते वही हैं जो चल रहा है। और उसके बाद अगर उनसे कोई पूछ ले कि ऐसा क्यों तो कहते हैं---क्या करें मालिक का दवाब है। अरे! मालिक का दवाब है तो नौकरी छोड़ दो। घर बैठो। ज्ञान दो। हंस जैसे मठ चलाने वाले कुछ और पत्रिकाओं में लेख लिखो। जिंदगी चलती रहेगी।
ऐसे ही दूसरे ज्ञानी हैं अजदक। जनसत्ता के अजदक। यानी सुधीश पचौरी। वामपंथ का लबादा ओढ़कर कुछ भी लिख चलते हैं। किसी की मेहनत का मजाक उड़ा देते हैं। पर अगर खुद उसी काम को करें तब समझ में आएगा कि किसी चीज पर सिर्फ कलम चलाना कितना आसान है और उसे करना कितना कठिन।

कमियां सब में है। उसी के साथ जिंदगी जीना भी है। पर ज्ञान और भाषण देने वाले ये भूल जाते हैं कि जो वो कर रहे हैं उसमें वो कितने ईमानदार हैं। अगर आपको पढ़कर गुस्सा आया तो टिप्पणी करें। और अगर नहीं आया तब भी टिप्पणी करें
स्वागत है।

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
सही है-कई दिनों से साईं कृपा देख रहे हैं, अतः गुस्सा नहीं आया...बस, एक अजब सी छटपहाट लगी, मगर जाने दें उसे.

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