प्रचंड की खुली पोल



नेपाल के नए प्रधानमंत्री प्रचंड। माओवादियों के प्रखर और ओजस्वी नेता। ऐसा नेपाल की जनता ही नहीं माओवाद को मानने वाले भी कहते थे। नेपाल में राजशाही को जब तक खत्म नहीं कर लिया तब तक चैन नहीं लिया। प्रचंड खुद अब सत्ता में हैं।
लेकिन इससे पहले वो माओवादी नेता हैं। माओवाद के सिद्धांतों को मानने वाले। पर ऐसा नहीं है। सत्ता में आते ही प्रचंड की नंगई नजर आ गई। प्रचंड बिलकुल नेताओं की तरह बात करने लगे। किससे नफा और किससे नुकसान--इसका ख्याल सबसे पहले रखने लगे।

प्रचंड का भारत दौर उनके लिए काफी महत्वपूर्ण है। बड़ी वजह है। नेपाल में भारतीय कंपनियों के निवेश की गुहार लगाना। प्रचंड ने हमेशा पूंजीपतियों के खिलाफ बेखौफ आवाज उठाई। जिंदगी का एक लंबा समय जंगलों और भारत के शहरों में छुप-छुपकर बिताया। लेकिन सत्ता में आते ही खुद पूंजीपतियों को निवेश के लिए अनुरोध कर रहे हैं। देश की तरक्की हर कोई चाहता है। पर एकदम से विकास मॉडल को हाईजैक करके उसे अमल में लाने की फिलहाल जरूरत नहीं थी।

बुद्धदेव भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के रोल मॉडल मुख्यमंत्री के तौर पर उभरे। विकास के नाम पर ज्योति बाबू से ज्यादा काम किया। इसके लिए उन्हें पार्टी की बेरुखी भी सहनी पड़ी। लेकिन उस विकास मॉडल को आगे कैसे बढ़ाया जाए इसकी जानकारी उनके पास नहीं है। यही वजह है कि पहले नंदीग्राम और बाद में अब सिंगूर उनके साथ सांप और छुछुंदर का खेल खेलता रहा है। न उगलते बन रहा है न निगलते।

टिप्पणियाँ

Gyan Darpan ने कहा…
भाई आन्दोलन चलाना व सरकार चलाने में यही तो फर्क है ,आन्दोलन चलते समय तो जो मर्जी बकवास करलो लेकिन सरकार बनने के बाद तो परिणाम भी तो दिखाना पड़ता है जो काम करने पर ही मिलेगा | रही बात पूंजीवाद की जब चीन साम्यवादी होते हुए भी पूंजीवाद के जरये आगे बाद रहा है तो कोन मार्क्सवादी इससे अछूता रहेगा ,मार्क्सवाद नाम तो अब मात्र लेने का रह गया है व्यहारिकता में तो पूंजीवाद ही है |
खुली किताब ने कहा…
सही कहा आपने शेखावत साहब। वाकई मार्क्सवाद अब सिर्फ किताबों की बातें हैं। सेमिनार और भाषणों में सिमटकर रह गया है। नव आधुनिकतावाद में सारे 'वाद' और आदर्श बिखर गए हैं। शेष है.... बुलंदी पर चढ़ने की अंधी दौड़।
Unknown ने कहा…
जिस समय प्रचण्ड भारत मे निवेषकर्ताओ को नेपाल मे निवेष का न्यौता दे रहे थें। उस समय उनकी पार्टी से सम्बद्ध ट्रेड युनियन नेपाल स्थित डाबर की फैक्ट्री मे गैर कानुनी घेराव और हडताल कर रहा था। माओवादीयो की वजह से नेपाल मे रोजदारी सृजन पुरी तरह ठप्प हो गया और नेपालियो को खाडी के देशो और मलेशिया मे अति प्रतिकुल स्तिथियो मे काम के लिए जाना पडा। खाडी के देशो और मलेशिया मे प्रति महिने 55 नेपाली श्रमिको की मौत हो रही है। ईस स्तिथी के लिए सिर्फ और सिर्फ प्रचण्ड जिम्मेवार है। और प्रचण्ड को सत्ता तक पहुचाने का काम सिर्फ और सिर्फ भारत की यु.पी.ऎ. गठबन्धन ने किया है।
tvkidunia ने कहा…
आपने सामयिक विषय पर लिखा, पर दूर का सोचते हुए लिखा। लेकिन मैं प्रचंड के लिए थोड़ा विनम्र रहना चाहता हू्ं। वो नेपाल में एक नया युग अपने दम पर लेकर आए हैं, संभवत: उनके पास विजन भी होगा (ऐसा न मानने का कोई कारण नहीं है, वर्ना राजशाही से कैसे निपटते). हम अपने पड़ोसी अपनी मर्जी से नहीं चुन सकते। मगर उनके साथ बेहतर रिश्ते बनाने की कोशिश जरूर कर सकते हैं। प्रचंड शायद ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं, भारत सरकार को चाहिए कि वो अपने लंबे लोकतांत्रिक अनुभव का प्रयोग भारत और नेपाल के बीच पहले से कहीं अच्छे रिश्ते बनाने के लिए करे। कमजोर के पास आशंकाएं होती हैं, और बलवान के पास महत्वाकांक्षाएं। अगर नेपाली सरकार को ये समझा सकें कि आपकी कमजोरी को हम मजबूती में बदलने को तैयार हैं, तो रिश्ते बहुत बेहतर हो जाएंगे। फिर पड़ोसियों के बीच बड़े भाई की भाईगीरी का बदनुमा दाग भी हट जाएगा।(पाकिस्तान, भूटान, श्रीलंका - इन सबकी शिकायत है कि भारत भाईगीरी करता है) हकीकत में हम ऐसे नहीं है। लेकिन हमारे राजनीतिक नेतृत्व के पास कभी भी दूरदर्शिता नहीं रही। जिसका अंजाम आम जनता भुगत रही है।
इसलिए सिर्फ प्रचंड को लतियाना ठीक नहीं है। (पहले हम राजशाही को लतियाते थे, या कुछ नहीं समझते थे)। प्रचंड की सबसे बड़ी सफलता ये है कि भारत नेपाल को गंभीरता से लेने की कोशिश करने लगा है।
फिलहाल इतना ही, एक उत्तेजक लेख के लिए आपको साधुवाद।
आपका
भास्कर जुयाल
Gyan Darpan ने कहा…
माओवादियों को अब काबू में रखना प्रचंड के भी शायद ही बस में रहे , क्योंकि किसी भी आन्दोलन में आंदोलनकारी कभी भी अनुशासन में नही रहते ,इसलिए वे दिक्कत तो करेंगे ही चाहे डाबर बंद करवा कर करें या कुछ और | भुगतना नेपाल की आम जनता को ही होगा |

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