काश! ये साल न आता

दोस्तों,
क़ायदे से तो हर दिन नया होता है। हर साल नया होता है। पर एक परंपरा दुनिया भर में चली आ रही है। 31 दिसंबर को मौज मस्ती और गुल्छर्रे उड़ाना हमारी वार्षिक दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। पर क्या कोई दिन ज़िंदगी से बड़ा हो सकता है? शायद नहीं। लेकिन आम तौर पर एक मानसिकता बन गई है कि साल भर का सारा पाप आखिरी दिन खत्म कर देना चाहिए। अगली सुबह से नए तरह का पाप जो करना है। ऐसे में रात जितनी रंगीन गुज़रे उतना ही समाज में, दोस्तों में हांकने में मज़ा आएगा। इस चक्कर में अक्सर हम भूल जाते हैं कि हमारे अलावा और भी ज़िंदगियां हैं जो बेहतर जीवन की तलाश में हैं। बस यहीं चूक होती है।..........क्रमश:

टिप्पणियाँ

खुली किताब ने कहा…
क्रमश: कब पूरा होगा महाशय?
ashish ने कहा…
धीरज जी इस विचारोत्तेजक ब्लॉग के लिए बधाई, उम्मीद है आगे भी इसी प्रकार झकझोरने वाले विचार इस मंच पर उठाते रहेंगे...लगे रहिए बंधु...
ए के

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