कौवे की मौन सभा में कुटाई

 



रोज़ सुबह की तरह आज भी मैं राजपथ पर टहलने निकला। राजपथ वो नहीं जिसपर पैरेड होता है, अपने घर के बाहर वाली सड़क को भी मैं राजपथ ही कहता हूँ। वैसे भी कहने में क्या जाता है। किसी कोवीरकह देने से वो वीर थोड़े हो जाता है। रहता तो याचक ही। चाहे जितनी बार भीख माँग ले। 


खैर, राजपथ पर टहलते-टहलते अचानक मेरी नज़र एक सूखे पेड़ पर गई। दीमक ने उस पेड़ को चूस लिया है, जब तक खड़ा है, तब तक पेड़ है। जिस दिन गिर जाएगा, उसके छोटे-छोटे टुकड़े काटकर लोग बोन फ़ायर की मस्ती में दारु पी लेंगे। उस सूखे पेड़ पर कौवों की सभा चल रही है। नमस्ते की मुद्रा में सारे कौवे अलग-अलग टहनियों पर बैठे हैं। मुझे हैरानी हुई। कहीं से चू-चपड़ की कोई आवाज़ नहीं रही है। मैं रुक गया। मन ही मन कहा, वाह! हनुमान जी, आपकी चालीस की महिमा है कि लाउडस्पीकर तो क्या चिड़ियों की आवाज़ तक बंद हो गई। तभी एक कौवे ने ज़ोर से कांव-कांव किया। मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। हम लोकतंत्र में है भई, इस बात का थोड़ा भरोसा जागा। जो कौवा अब बोल रहा है वो बाक़ी कौवों से थोड़ा ऊपर बैठा है। मुझे समझ आया, वो राजा कौवा है। बाक़ी कौवे या तो प्रजा है या फिर अलग-अलग क्षेत्रों की जनता कौवे के प्रतिनिधि। सारे कौवे राजा की तरफ़ नमस्ते की मुद्रा में देख रहे हैं। पर ये क्याअचानक नीचे बैठे एक कौवे ने एक हल्की सी आवाज़ क्या निकाली, पाँच-सात कौवे एक साथ उसपर झपट पड़े। सब ने मिलकर उसको कूट दिया। ठीक ही तो किया। लोकतंत्र में राजा कौवे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत करना लोकतंत्र का अपमान ही तो है। 


राजा कौवा ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। बीच-बीच में हल्की आवाज़ में भी बोलता। मानो भाव-भंगिमा बदलकर बाक़ी सब पर हँस रहा हो ताली बजा-बजाकर। आज मुझे पहली बार अहसास हुआ काश! मैं कौवों की बोली समझ सकता। क्या पता कमज़ोर रुपए, पेट्रोल, रसोई गैस या महंगाई जैसे मसलों पर राजा कौवा बोल रहा हो। हालाँकि राजा अपने मुँह से इतनी छोटी बातें कहाँ निकालते हैं। और ही जरूरत है। भक्त ही काफी हैं उसके लिए। 


एक तरफ़ा मन की बात की मौन सभा चल ही रही थी कि सामने से दो सफ़ाई कर्मचारी झाड़ू लिए आते दिखे। एक बार के लिए मैं हल्का सा झेंप गया। पता नहीं ये दोनों क्या कहेंगे। मैं कौवों को क्यों देख रहा हूँ। पर उनकी परवाह किए बिना मैं ऊपर देखने लगा। जब दोनों कर्मचारी मेरे पास आए तो एक ने हंसकर कहाअरे!! बाबू जी, आप इन कौवों को देख रहे हैं? ये तो रोज़ ऐसे ही बैठते हैं। साले, कौवे हो गए, देश के नेता हो गए। रोज़ बैठक करते हैं। एक दूसरे को गालियाँ देते हैं और बाद में चोर-चोर मौसेरे भाई। मुझे हँसी गई। मैंने कहादादा, नेता बैठक नहीं करेंगे तो देश आगे कैसे चलेगा? उसने तपाक से कहालो, कर लो बात। ये झाड़ू देख रहे हो आप। पहले सौ रुपए में मिलती थी, नए डंडे के साथ। अब तीन सौ रुपए में मिलती है। पहले दस पाँच रुपए हमारा भी बन जाता था, अब तो सब बंद। हमारी जमात के लोग जान पर खेलकर सीवर में उतरते हैं। बच गए तो बच गए नहीं तो मरना तो तय है। करें तो खाएँ क्या? कहने को सरकार गरीबों के लिए होती है। अमीर साँड बनते जा रहे हैं और ग़रीब बेचारा रोटी को मोहताज है। 


माहौल थोड़ा बोझिल होने लगा। ऐसी ही बातें तो दिन भर देश की चिंता करने वाले लोग टीवी पर बोलते रहते हैं। नेता तो बोलते ही हैं, उनके लोग भी बोलते हैं, जानकार भी बोलते हैं। ग़रीब भी बोलते हैं। फिर भी ग़रीबी बढ़ती जा रही है। 


मेरा ध्यान अब भी कौवों की तरफ़ है। तभी एक चील सबसे ऊपर की टहनी पर आकर बैठा। चील के आते ही राजा कौवा भाग खड़ा हुआ। उसके बाद एक-एक करके सारे कौवे खिसकने लगे। मुझे समझते देर लगी। जो दिख रहा है वो असल में है नहीं और जो नहीं दिख रहा है, उसकी हमको ख़बर नहीं। संसार का अजीब चक्र है। 




  


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