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फ़रवरी 2, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डिंगमार राजनीति का डंका

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डिंगमार राजनीति का डंका तो प्रधानमंत्री मोदी और उनके अर्जुन और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह तो ऐसे बजाते हैं जैसे न भूतो न भविष्यति। अभी पिछले दिनों दिल्ली के चुनावी सभा में अमित शाह ने मोदी की मौजूदगी में कहा कि देश में 1500-4500 रुपए तक महंगाई कम हो गई है। मैंने सोचा क्या जनता को इस बात का अंदाजा है कि महंगाई कम हो गई है। दुनियाभर में कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट से पेट्रोल और डीजल के दाम भारत में भी कम हुए तो लगा अब महंगाई कम होगी। हमारी जेबों को थोड़ी राहत मिलेगी, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं। या तो अमित शाह और मोदी के आंख-कान हैं वो उन्हें गुमराह करते हैं या फिर डिंग मारने की पुरानी आदतों से दोनों बाज नहीं आते। अरे भाई! अगर महंगाई कम होती तो क्या हमें पता नहीं चलता। पता नहीं ये महंगाई हमेशा कागज़ों पर ही क्यों कम होती है। आम लोगों के चेहरों पर जो तनाव है उसमें कमी क्यों नहीं आती। सब्जियां अब भी उसी कीमत पर मिल रही है, दूध, फल से लेकर खाने पीने की हर चीज़ की कीमत में महंगाई कम होने का कोई असर नहीं आया। फिर महंगाई कहां कम हुई। इस देश का दुर्भाग्य है जनता गुमराह होती है और नेता उस

'बीजेपी के लिए राहुल गाँधी साबित होंगी किरण बेदी' (Kiran Bedi is going to be Rahul Gandhi for BJP in Delhi)

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दिल्ली चुनाव भले ही बीजेपी के लिए आन बान और शान का सबब बना हो। पर लगता है ड्राइविंग सीट पर किरण बेदी को बिठाकर बीजेपी ने अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार ली है। अब चूंकि मामला हाथ से निकल चुका है इसलिए बीजेपी के लिए गले की हड्डी साबित हो गई हैं किरण बेदी। उगलने का तो सवाल ही नहीं और निगलने के अलावा कोई चारा नहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि आईबी की रिपोर्ट ने बीजेपी की आँखें खोल दी हैं। अखबारों की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली की जनता मोदी को पसंद तो कर रही है लेकिन बेदी पर भरोसा करने से कतरा रही है। यही ख़तरा संघ को भी था। संघ भी अबतक किरण बेदी पर भरोसा नहीं कर पा रही है। अब मोदी के इस फैसले को बदलने का न तो समय है और न ही कोई समझदारी है। देखने की ज़रूरत ये है कि किरण के सामने किस-किस के ख़तरे हैं--- (1) किरण बेदी का रूख नेताओं जैसा नहीं अफसर जैसा है। उनका पूरा हाव-भाव अब भी अपसरों जैसा है जबकि राजनीति में अफसर जैसा रौब नहीं बल्कि सरलता और सहजता ज़रूरी है और आम जनता जबतक खुद को उस अमुक नेता से जोड़ नहीं पाती, वोट देने में हिचकिचाती है।   (2) किरण न तो वक्ता अच्छी हैं और न ही नेताओं जै