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भाव शून्य समाज में पदार्थ की महत्ता

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इस दौर में जब बार-बार कला के अनुशासनों पर प्रश्न चिन्ह उठ रहा हो तो संवेदनशील ह्दय कराह उठता है। अफसोसजनक है नितांत कलाप्रिय समाज में भारतीय जन मानस में विज्ञान और वाणिज्य की बार-बार स्थापना और कला को नकारना जैसे इस युग की विवशता हो चुकी है। कला की समाज में घटती महत्ता ने पूरे साहित्य समाज को गहरे असमंजस की स्थिति में ला खड़ा किया है। हम सब जानते हैं कला भाव को समृद्ध करती है वहीं विज्ञान और वाणिज्य पदार्थ को। यद्यपि समाज में भाव और पदार्थ दोनों की आवश्यकता है लेकिन भाव की प्रधानता से जहां समाज का ढांचा मजबूत होता है वहीं पदार्थ की प्रधानता से सह्दय समाज की संवेदना शून्य हो जाती है। इस पदार्थ आधारित घोर वैज्ञानिक युग में हर कोई रोटी कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में व्यस्त है। ऐसे में जीवन के समक्ष और सह्दय समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भाषा साहित्य और संस्कृति को लेकर है। शिक्षा का उद्देश्य जीवन के स्थूल और सूक्ष्म रूप को जानना और समझना है और आज हम केवल स्थूल रूप को संचालित कर रहे हैं। मानों जीवन की आंतरिक लय और धुन(कला) को भूलते जा रहे हैं। क्या ये सही है?