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अस्सी घाट का बांसुरी वाला: क्रांति का पाञ्चजन्य सच्चे अनुभवों की सच्ची अनुभूति ही कविता है। हर सच्ची कविता अपने समय और समाज में पसरी असमानता और शोषण का विरोध करती है। हम जिस बिडंवनाग्रस्त समाज में सांस ले रहे हैं उसमें अंतर्विरोध और विकृतियां बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में सह्दय समाज की प्रतिबद्धता और बढ जाती है। तजेन्दर लूथरा की क्रांति का पाञ्चजन्य संघर्ष की एक नई ज़मीन तैयार करती हैं। फिर उसे यूं ही नहीं छोड़ती बल्कि प्रतिरोध का बीज भी बो कर आती हैं। यही इन कविताओं की सच्चाई भी है। सत्ता और तंत्र के तिलिस्म को तोड़ने के लिए इनका सृजन समय और समाज में दबे छिपे चुप पड़े आत्महनन पर उतारु मध्यमवर्गीय समाज का सारा सच उगल देती हैं। क्रांति का आह्वान करती ये कविताएं उसी बांसुरीवाले के हैं जो लगभग प्रत्येक कविता एक आंतरिक धुन समेटे हुए है....जीत भले न पाऊं पर चलूंगा लेकिन/ कोशिश करूंगा लेकिन....‘’अस्सी घाट का बांसुरीवाला” कविता प्याज की परतों सी और अधिक अर्थवती होकर खुलती है। इसकी पहली ही पंक्ति से जाहिर है कि मात्र कविताई करना तेजेंदर का उदेश्य नहीं। कविता के माध्यम से ऊबड़ खाबड़ व्यवस्था में क्

क्या अन्ना भुला दिए गए?

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लंबे अरसे से मेरे जेहन में एक सवाल है....क्या अन्ना भुला दिए गए? क्या अन्ना का आंदोलन हाशिए पर चला गया? संभवत: आपके मन में भी ऐसे सवाल उठते होंगे....ध्यान रहे मुझे वो बातें सोचने पर मजबूर नहीं करतीं जो सरकार ने किया... यूपीए सरकार ने जिस तरह से अन्ना के आंदोलन को कुचल दिया वो हैरत में नहीं डालता। सरकार खुद को बनाए रखने के लिए हर वो काम करेगी जिससे उसे सांस मिले। सिब्बल, चिदंबरम और सलमान खुर्शीद जैसे शकुनी मामाओं ने जो भी चालें चलीं, जो भी समीकरण बनाए उसके लिए भी हैरानी नहीं होनी चाहिए। आखिर वो इन्हीं बातों की बदौलत जीवित हैं...यह भी कहना सरासर लगत है कि सोनिया जी इन बातों से अनजान हैं या रही हैं...लेकिन हर बार की तरह इस बार सोनिया गांधी ने भी उस तरह से बातों पर काबू नहीं पा सकीं जैसे पहले करती रही हैं....बीजेपी ने जिस तरह से अन्ना और उनके सहयोगियों की पीठ में खंजर भोंका वो भी विचलित नहीं करता। 10 जनपथ के भोंपू,खुद को कुशाग्र बुद्धि समझने वाले और राजनीति करियर में विफलता की तरफ अग्रसर दिग्विजय सिंह के अन्ना विरोधी एजेंडे ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे अन्ना का आंदोलन हाशिए पर चला जाए