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एकाकीपन से ऊबरने की कोशिश- लंच बॉक्स

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            युवा फिल्मकार रितेश बत्रा की बहुचर्चित और अत्यंत प्रशंसनीय फिल्म ‘ द लंच बॉक्स ’ वाकई दिल को छू लेने में कामयाब होती है। फिल्म को देखते हुए प्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानियां बार-बार याद आईं।   फिल्म के एक साथ कम से कम चार पांच पात्र अपनी कहानी अलग-अलग अंदाज में कह रहे होते हैं, लेकिन सबमें एक सामान्य स्वर उभरता है एकाकीपन । पहला अहम किरदार हैं इरफान खान---एक ऐसा कलर्क जो समय से पहले नौकरी से रिटायरमेंट लेने की तैयारी में हैं। पत्नी की मौत के बाद से नितांत अकेले। उसकी ज़िंदगी में सबकुछ एक रटी रटाई लीक पर रेंग रही है। पिछले पैंतीस सालों से ऑफिस में रोज़ घंटों हिसाब किताब करना...कैलकुलेटर पर लगातार ऊंगलियां नचाना..डेढ़ बजते ही खाने का लंच बॉक्स उठाना और पांच बजते-बजते घर के लिए निकल जाना। लोकल में धक्के खाकर घर पहुंचना...घर के पास क्रिकेट खेल रहे बच्चों को फटकारना और फिर रात में सामने के पड़ोसी की खिड़की से भरे पूरे परिवार को एक साथ खाना खाते देखना...रस्क करना और अकेलेपन को सिगरेट के धुंए में उड़ा देना....न तो इससे कुछ ज्यादा और न ही इससे कुछ कम। इन सबमें

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