“कभी-कभी लगता है आपुन ही भगवान है”


क्या गणेश गायतोंडे नहीं जानता था कि वक्त के समंदर में बड़े-बड़े सिकंदर डूब चुके हैं? 

चौड़ी सड़क पर भाग रहा हूं मैं बेतहाशा। पीछे न जाने कौन-कौन सी एजेंसियां पड़ी है। हालांकि दौड़ाने के लिए एक ही एजेंसी काफी है। और भागते समय पहली और आखिरी कोशिश यही होती है कि किसी तरह बच जाएं। अचानक देखा, सामने से एक ट्रक आ रहा है। ट्रक और मेरे बीच एक फीट की दूरी रही होगी कि ज़ोर से कट की आवाज़ आई। लाइट्स ऑन हो गई। यह तो फिल्म का सेट है। सेट पर मौजूद लोगों ने तालियाँ बजाईं। एक टेक में बेहतरीन रिएक्शन देने के लिए डायरेक्टर ने आकर गले लगा लिया। मेरी नींद खुल गई। मुझे अफसोस हुआ। धत! नींद भी गलत समय पर टूटती है। थोड़ी और रह जाती तो उसका क्या चला जाता। लेकिन नहीं, माथे पर लिखा है, ज़िंदगी और पनौतियाँ एक साथ चलेंगी, तुम्हें जो उखाड़ना है उखाड़ लो।

नींद टूटते ही मैं फिर से जिंदगी और पनौती की दोस्ती की जाल में फंस गया। सोचने लगा, क्या यह सच है कि ज़िंदगी और पनौतियाँ एक दूसरे की पूरक हैं? क्या ऐसा ही होता है ज्यादतर लोगों के साथ? कहीं ऐसा तो नहीं कि गिने-चुने भगवानों के बीच सवा सौ करोड़ से ज्यादा लोग पनौती की तरह हैं? अगर ऐसा है तो गणेश गायतोंडे ने यह बात क्यों कही होगी-“कभी-कभी लगता है आपुन ही भगवान है” क्या गणेश गायतोंडे नहीं जानता था कि वक्त के समंदर में बड़े-बड़े सिकंदर डूब चुके हैं। क्या गायतोंडे को नहीं मालूम था कि अख्खी मुंबई जो आज उसकी है तो कल किसी और होगी? लोगों के चेहरे पर खौफ देखकर गायतोंडे को समझ नहीं आता था कि एक दिन इन्हीं में से कोई उठेगा और उसको मिटा देगा? हर खौफ की एक उम्र होती है। खौफ मरता है और बहुत बुरी मौत मरता है, पर जब मरता है एक नया खौफ पैदा कर जाता है। जो लोग आज गायतोंडे को भाई-भाई कहते हैं, कल वही हँसेंगे और गलियाँ देंगे। पता नहीं पावर आते ही गणेश गायतोंडे जैसे लोग खुद को क्यों भगवान समझने लगते हैं। मैं कई बार सोचता हूं कि गायतोंडे जैसे लोग, जब भगवान बन जाते हैं तो उनके आसपास रहने वाले लोग भी उन्हें भगवान मानते हैं या नहीं? क्या पता मानते हों। पर क्या पता, वो गायतोंडे की असलियत जानते हैं इसलिए भगवान नहीं मानते हों। असल में भगवान के साथ रहने वाले चंगु-मंगु भी तो छोटा भगवान बन जाते हैं। वो खुद को भगवान इन मेकिंग समझने लगते हैं। 

गणेश गायतोंडे को भगवान बनाता कौन है? हालांकि वो भगवान अपनों के बीच बार-बार कहता है कि उसे किसी ने नहीं बनाया है। वो सेल्फ मेड है। जो दावा करते हैं झूठे हैं। पर भगवान जब लोगों के बीच आता है तो कहता है कि सब आप ही का है। आपने मुझे भगवान बनाया है, मैं तो आपके लिए हूं और आपसे हूं। मैं तो सेवक हूं। अख्खी मुंबई का चौकीदार हूं। कोई इधर आँख उठाकर नहीं देख सकता। जो देखेगा, उसकी आँखें निकाल लेंगे। जो हाथ उठाएगा, उसके हाथ काट डालेंगे और अख्खी मुंबई को पूरी तरह पाक कर देंगे। जनता को लगता है जब भगवान कह रहा है तो फिर चैन की नींद सो जाओ। सारी चिंता भगवान की। सच है जब भगवान है तो फिर चिंता वो करे। हम क्यों करें। हमने उसको भगवान किस लिए बनाया है। जनता और भगवान के बीच जो भरोसा है वो दरअसल भ्रम है। जीते रहो भ्रम की मायानगरी, मुंबई में। भगवान और पनौतियों (सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता) के बीच बुनियादी फर्क क्या है? क्या सिर्फ यह कि भगवान के पास मठ है और पनौतियां डर से उस मठ में मथ्था टेकती हैं? भगवान के नाम का जयकारा रात दिन होता है टीवी पर, रेडियो पर, सोशल साइट्स पर और पनौतियां डर से जयकारा करती है? डर के चढ़ावे से भगवान का चेहरा चमकने लगता है। भगवान जितना ज्यादा चमकेगा, उसकी ख्याति उतनी बढ़ेगी। दुनिया के हर कोने में। जो गायतोंडे को मोटा चढ़ावा देता है, उसकी ज़िंदगी चल निकलती है। पर जो छोटा-छोटा चढ़ावा देता है, वो हर पल मौते के साये में जीता है और जब बूंद-बूंद पानी के मोहताज होने लगता है या फिर बाढ़ का पानी घर के अंदर आ जाता है तो खुद को खत्म कर लेता है। गणेश गायतोंडे नोटों की कुछ गड्डियाँ उसकी लाश पर फेंकता है। दर्शक फिर से जय जयकार कर उठते हैं। 

जय जयकार दुनिया भर के दर्शकों का शगल है। आप देखते हैं न, अमेरिका में भी जयकारा वाली कैसी भीड़ इकट्ठा हो जाती है दर्शकों की। मैं तो नहीं मानता पर हमारे जैसे बहुत सारी पनौतियों का मानना है कि ट्रंप दुनिया का सबसे बड़ा गायतोंडे है। वो तो दर्शकों को बीच में बार-बार कहता है-आपुन को लगता नहीं बल्कि यकीन है कि आपुन ही भगवान है। पता नहीं वो भी गायतोंडे की ज़ुबान कैसे बोल जाता है। पुतिन ने तो पिछले कई वर्षों से रूस पर राज करके साबित कर दिया है कि वहां का गायतोंडे वही है। फिर बचा कौन। चीन का तो सिस्टम ही गायतोंडे बन गया है। वहाँ लंबी कुर्सी पर कोई भी बैठे, पनौतियों की औकात दो कौड़ी की भी नहीं है। गायतोंडे जिस भी देश का हो, उसकी नीयत और फितरत एक ही है-अहम ब्रह्मास्मि। पर दिक्कत यह है कि ब्रह्मा सिर्फ पुराणों में ही शाश्वत हैं। और जो पुराणों में शाश्वत हैं वो वास्तविकता में सत्य है कि नहीं, यह कहना मुश्किल है। अब तो दौर है गायतोंडे का। जिसके लिए सत्य एक खिलौना है। वो जब चाहे सत्य को अर्द्ध सत्य बना देता है या फिर झूठ को सत्य बना देता है। पर सत्य न तो अर्द्ध होता है न बरगलाने वाला। सत्य महज एक शब्द नहीं बल्कि अपने आप में ही पूरा वाक्य है। पूरा जीवन है। जीवन दृष्टि है। पूरी सृष्टि है। सत्य को मिटाना असंभव है। सत्य के राहगीर हमारे राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी आज भी शायद इसलिए जीवित हैं। लाख सफाई अभियान के बावजूद भी उन्हें मिटाया नहीं जा सका। गणेश गायतोंडे लाख कह ले कि अख्खी मुंबई उसकी है और वो भगवान है। पर सत्य यह नहीं है। और सत्य को मिटाया नहीं जा सकता। झूठ की जय-जयकार की गूंज चाहे जितनी आसमान फोड़ू हो, सत्य को मिटा नहीं सकती। और सत्य यह है कि गणेश गायतोंडे इतिहास से छेड़छाड़ तो कर सकता है, उसको मिटा नहीं सकता। मुंबई गायतोंडे की नहीं है। जनता की है जिसे गायतोंडे जैसे लोग पनौती समझते हैं।

मौसम विभाग ने चेतावनी दी है कि हवा का दबाव कम होने की वजह से अरब सागर में तूफान आ सकता है। मौसम विभाग की भविष्यवाणी पर लोग हँसते हैं और हल्के में उड़ा देते हैं। यह सच है कि किसी का भी भविष्य बताना मुश्किल है। खुद अपना भी।  कोई नहीं जानता, कौन सा तूफान सुनामी बन जाए और खौफ की नई दुनिया बना दे। नया भगवान बना दे।  

यह सब चल ही रहा था कि बीवी चिल्लाई। देखिए जी, कबाड़ी वाला हेराफेरी कर रहा है। तीस रूपए कम दे रहा है। सपने की दुनिया से मैं भी उठा और हकीक़त की ज़मीन पर खडा हुआ। कबाड़ी वाले के पास पहुँचा तो उसने कहा-साहब, दिन भर गली-गली घूमता हूँ। दो रुपए आप लोगों से ही तो कमाऊंगा। मेरे मन में आया, सही बात है। दस-बीस रूपए के लिए इसके पीछे एजेंसी लगाना ठीक नहीं। ये तो बेचारा खुद ही भाग रहा है। इसका तो ट्रक से टकराना तय है। कबाड़ी वाला जब पुराने अखबार का बंडल अपनी साइकिल पर लाद रहा था तो मेरी नज़र सबसे ऊपर वाले अखबार पर गई। उसमें लिखा है—Air emergency in Delhi. नीचे मास्क पहने एक पनौती की तस्वीर और उसके बगल में लिखा है—दिल्ली सरकार वायु प्रदूषण रोकने में असफल: विपक्ष। मेरे दिमाग ने मुझसे एक सवाल पूछा- गायतोंडे अभी क्या कर रहा होगा?


नोट—गणेश गायतोंडे का जिक्र महज इत्तेफाक है। न तो लेखक की मंशा गणेश गायतोंडे को नीचा दिखाने की है और न ही उसको भगवान से एक ईंच कम मानने की है। गणेश गायतोंडे के चरित्र से किसी भगवान को जोड़ने की कोशिश, पाठक की अपनी कल्पना की उड़ान हो सकती है। ऐसी उड़ानों पर लेखक का उसपर कोई अख्तियार नहीं। 

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