मेरा फोन अब मेरा न रहा







कई वर्षों से लगातार बीमार चल रहे MTNL के लैंडलाइन फोन ने कल आखिरी सांस ली। अंतेष्टि MTNL ऑफिस में किया। वहाँ पता चला, हर दिन लगभग 20-25 फोन मोक्ष को प्राप्त हो रहे हैं. आप शोकाकुल परिवार को ढाढस दे सकते हैं।

एक वक्त मैंने वो भी देखा है कि फोन स्टेटस सिंबल हुआ करता था। लोग ऐंठ में बताते थे कि उनके पास लैंडलाइन फोन है। फोन नंबर बताते हुए दूसरों के धुंआ-धुंआ होते चेहरे को बड़े फ़क्र से देखते थे और कहते थे, फलां मंत्री जी हमारे चाचा हैं। एक महीने में ही फोन लग गया। अगले कई हफ्तों तक उसके लिए चर्चा का एक ही विषय रहता-लैंडलाइन फोन लग गया। यकीन मानिए, लगता था कि पता नहीं सामने वाला किस दुनिया का आदमी है। अब वो सीधे-सीधे अमेरिका, यूरोप के किसी हिस्से में बैठे शख्स को फोन कर सकता है और आपबीती बता सकता है। जिनके पास पहले फोन नहीं होते थे वो भी दूर रहने वालों को संदेश देते थे, पर बहुत मुश्किल होती थी। संदेशवाहक अपने साथ पत्र लेकर जाता था। पत्र में लिखा जाता था कि आपको मालूम हो कि यहाँ का समाचार ठीक है, हमलोग ठीक हैं पर आपका कोई समाचार नहीं मिला, इसलिए चिंता लगी थी। वगैरह-वगैरह। संदेशवाहक को दोनों तरफ से उचित मान-मर्यादा और आने जाने का खर्चा दिया जाता था। 

वक्त बदला। देश ने तकनीकी तरक्की की। अब हालत यह है कि हर घर में कई-कई फोन हैं। पर ये सारे मोबाइल फोन हैं। लैंडलाइन उपेक्षित सा पड़ा रहता है एक कोने में। ज्यादा से ज्यादा उसकी ज़रूरत ब्रॉडबैंड के लिए हो जाए तो समझिए गनीमत है। लैंडलाइन घूर-घूरकर घर वालों को देखता रहता है और सोचता रहता है, काश! मेरे ऊपर पड़ी धूल को कोई तो हटा दे। कोई तो मुझे भी छू ले, कोई तो मुझे चूम ले। पर नहीं साहब। महीनों-महीनों तक घर के किसी भी सदस्य की उसकी तरफ नज़र भी नहीं जाती। फोन न हो गया, घर में अकेलापन का दर्द सह रहे बुजुर्ग हो गए। बेचारे, पूरी ज़िंदगी लगातार काम करने के बाद जब लायक नहीं रह जाते, कोने में कर दिए जाते हैं। लायक और नालायक तो सबको इसी ज़िंदगी में होना है। 

यकीन मानिए, मैं अपने फोन को बेकार और कोने में डालने की हिमाकत नहीं कर पाया। उसको लगातार जीवित रखने की सारी कोशिशें की। और तो और एमटीएनएल के कंपाउंडर (लाइनमैन) को इलाज के लिए बुलाता रहा। न चाहते हुए भी कई बार खातिरदारी भी की। उसका हश्र यह होता कि जब तक वो सामने रहते, फोन और ब्रॉडबैंड काम करता। उनके जाते ही फोन चक्कर खाकर औंधे मुंह गिर जाता। 

मेरी हालत देखकर मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया। कहा, अरे भाई साब, आप किन चक्करों में फंसे हैं। न्यू इंडिया, भारत सरकार के उपक्रमों को खत्म करके ही तो बनेगा। प्राइवेट कंपनियां इस सेक्टर में आ रही हैं। उन्हें स्थापित करने का जिम्मा कौन उठाएगा। मैंने पूछा-इसका क्या मतलब? तब उन्होंने तपाक से कहा। इसका जिम्मा तो सरकार ही उठाएगी न। एमटीएनएल के लोग ही उठाएंगे न। अगर आपका फोन सही सलामत काम करता रहेगा, ब्रॉडबैंड ठीक चलता रहेगा तो फिर इन प्राइवेट कंपनियों को कौन पूछेगा। अब जाकर समझ में आया कि न्यू इंडिया की कहानी वो नहीं है जो देश की ज्यादातर जनता समझती है। हमको-आपको मजबूर किया जा रहा है प्राइवेट कंपनियों की शरण में जाने के लिए। न चाहते हुए भी उसका शिकार मैं हो गया। पता नहीं आपकी बारी कब आ जाए। 


लगभग दो दशकों से साथ निभाने वाला मेरा लैंडलाइन नंबर अब मेरा नहीं रहा। उस नंबर को भूलना आसान नहीं है। कई स्मृतियाँ जुड़ी हैं। कई अच्छे बुरे संदेश उसकी बदौलत हमतक पहुँच पाए। पर क्या कीजिएगा। मामूली बातों के लिए आज भीड़ लोगों की जान ले लेती है। यह तो फोन ही है। नश्वर चीज़। कोई कितना प्यार करेगा, ऐसी चीज़ों से। प्राइवेट कंपनियों की भीड़ ने एक सरकारी संस्थान को लील ही लिया तो क्या बिगड़ जाएगा। कम से कम सरकार का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। आपका बिगड़ता है तो आप देखिए। न्यूज़ चैनल और अखबार एक फोन के मरने की खबर क्यों दिखाए और छापे। उनको पाकिस्तान साँस लेने दे तब न। आप कहेंगे, लैंडलाइन कनेक्शन कटवाने पर इतना लिख दिया। जाने दीजिए, आप नहीं समझेंगे। खैर, न्यू इंडिया में आपका स्वागत है।     

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