जानकीपुल: सृजनात्मकताएं मृत्यु का प्रतिकार हैं: पिछले 1 जनवरी को उदयप्रकाश 60 साल के हो गए. मुझे बहुत आश्चर्य है कि उनकी षष्ठिपूर्ति को लेकर किसी तरह की सुगबुगाहट हिंदी में नहीं हुई...
कुछ तो होगा कुछ तो होगा अगर मैं बोलूंगा न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा टूट मेरे मन टूट अब अच्छी तरह टूट झूठ मूठ मत अब रूठ---रघुवीर सहाय सहाय जी ये पंक्तियां ज़िंदगी के लिए रामबाण की तरह है। सत् प्रतिशत मन को शांति मिलती है। अगर ध्यान से पढ़ें और अमल करें तो कम से कम मन की परेशानियां तो ज़रूर दूर होती हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि लोग जानने समझने के बाद भी कुछ नहीं बोलते। मुक्तिबोध हमेशा ऐसे लोगों के खिलाफ लिखते रहे। पाश ने कहा था-बीच का रास्ता नहीं होता। बस सच यही है अगर ग़लत है तो ग़लत और सही है तो सही। पर लोग कहां ऐसा करते हैं। अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगा।
हिंदी में ब्लॉगगीरी करने वालों और पढ़ने वालों के लिए सबसे बड़ा सवाल- (1)क्या ब्लॉग महज भड़ास का एक जरिया है? (2)क्या ब्लॉग लेखन का पहला मकसद दूसरे को गलियाना ही है? (3)क्या ब्लॉग का इस्तेमाल अपनी कुंठा निकालने के लिए होना चाहिए? (4)या फिर ब्लॉग सर्जनात्मकता को एक नया आयाम देने का जरिया है? इन सारे सवालों के भाव संभवत: एक जैसे ही है। लेकिन इसका जवाब ढूंढना बहुत जरूरी है। जब से ब्लॉगगीरी में मैंने होश संभाला है तब से प्राय: हिंदी ब्लॉग की हालत और बदतर हुई है। ब्लॉग गाली-गलौच का पर्याय बन गया है। मैंने कई पाठकों को ये कहते सुना है कि किसी का ब्लॉग कोई क्यों देखे और पढ़े? पाठकों के मन में उठा सवाल जायज है। कईयों को ये भी कहते सुना है कि ब्लॉगगीरी तो खलिहरों का काम है--उनकी बात पर क्या ध्यान देना जो खलिहर हैं। एक तो ऐसे ही हिंदी पढ़ने और समझने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। ऐसे में ब्लॉग एक सशक्त जरिया बनकर उभरा है। पर इसे भी हमने गलियाने का एक बेहतरीन जरिया बना लिया है। प्रतिस्पर्धा हर जगह होती है। हिंदी ब्लॉग में होनी भी चाहिए। लेकिन इसे सकारात्मक तरीके से लिया जाए। भाषा की गरिम...
हंस के नवंबर अंक के संपादकीय में राजेंद्र यादव लिखते हैं-"कविता की सारी संभावनाएं निचोड़ी जा चुकी हैं। वहां नया करने के लिए कुछ भी नहीं। सामान्यीकरण की प्रक्रिया में अपने असली व्यक्तिगत को छिपाया जा सकता है। कविता एक सैल्फिश विधा है। कविता में स्रोत और संदर्भ आप स्वयं होते हैं। और उम्मीद करते हैं कि पाठक आपके कहे के साथ साधारणीकरण कर ले।" माफ कीजिएगा राजेंद्र जी, मैं आपके इस तर्क से असहमत हूं। मेरी छोटी सी बुद्धि तो इतना ही समझ पायी है कि कविता जैसी लोकतांत्रिक विधा ना तो जन्मी है ना जनमेगी। वह पर्सनल तो कतई नहीं होती। वह उतनी ही सामूहिक या कह लें सामाजिक जितनी की इस दौर की कहानियां। आपने शायद कविता की धार को अपने जीवन में अनुभव ही नहीं किया। गनीमत है गद्य के बहाने कहानी को कम करके नहीं आंका। कहानी तो तर गई आपके इतना भर कह देने से कि 'गद्य' में संदर्भ 'दूसरे' होते हैं। अपने को अपने आप से तोड़कर दूसरों में घुलाना पड़ता है और व्यापक सामाजिक संबंधों के माध्यम से अपनी बात कहनी पड़ती है। राजेंद्र जी शायद आप इधर कुछ नया नहीं पढ़ रहे वरना इधर जो नई कविताएं लिखी जा रह...
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