रॉकस्टार: गंद और जुनून की जाल में



इम्तियाज अली की हाल की फिल्म रॉकस्टार प्यार की परिभाषा के नए एक सूत्र को पकड़ने की कोशिश है। प्यार ऐसा जो जुनून तक इंसान को ले जाए। प्यार ऐसा जो न टाइम देखे न स्पेस। बस करना है तो करना है। इम्तियाज ने फिल्म को शुरू से जैसा संभाला वो काबिले तारीफ है। अच्छा बिल्डअप किया। हिंदू कॉलेज और स्टीफेंस के बीच जो सोसायटी का अंतर दिखाया वो भी काफी हद तक सही दिखा। जिस तरह से स्टीफेंस की हाई सोसायटी एक लड़की एकदम से हिंदू के एक ऐसे लड़के के साथ गंद करने निकल पड़ती है जिसे अंग्रेजी भी बोलनी नहीं आती, ये थोड़ा अटपटा लगा। नर्गिस को देखते हुए लगा जैसे जब वी मेट की करीना के मस्ती और बिंदास किरदार को फिर से जीवित करने की कोशिश की जा रही है और रणबीर कपूर को देखकर बैंड बाजा बारात के रणबीर सिंह की याद बार-बार आती रही। खैर, फिल्म में मस्ती या फिर कह लें गंद ने दर्शकों को अपनी तरफ खूब खींचा। मजा आया। लेकिन जैसे ही नर्गिस की शादी होती है उसके बाद से हालात ऐसे बदलते हैं कि जैसे दोनों एक दूसरे को टूटकर प्यार करते रहे हैं और अब दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। यहां तक आने से पहले न तो ऐसी भावनाएं प्रकट हुईं न ही माहौल दिखा। शादी से पहले सबकुछ सहज और अच्छा लगा। लेकिन शादी के बाद नर्गिस को मनोवैज्ञानिक परेशानियां होने लगीं। ऐसा लगा ये स्थिति जबरदस्ती क्रिएट की गई। जाहिर है ये बात दर्शकों को खली। एक ऐसी लड़की जो शादी से ठीक कुछ महीने पहले से गंद करने लगी वो अचानक उस बात की आदि हो गई?...वो अचानक एक ऐसे प्यार में पड़ गई जिसके लिए उसके मन में पहले से प्रबल भावनाएं नहीं थी। अगर यही दिखाना था तो इम्तियाज को इस तरफ इशारा करना चाहिए था। शादी से पहले मेहंदी लगाई नर्गिस का एक बार गले मिलना बहुत कुछ कहने में असमर्थ है।

दोनों का प्राग में मिलना और उसके बाद प्यार की पिंगे बढाना समझ में आता है। इससे नर्गिस मानसिक तौर पर ठीक होने लगती है एकबारगी यह भी समझ में आता है। पर समस्या अब शुरू होती है। रॉकस्टार में अपनी प्रेमिका को किस करने के लिए किसी भी हद तक जाना। अजीब लगने लगता है। प्यार और वासना के बीच एक हल्की दीवार है जो बिना जोर लगाए टूट जाती है। बस इस दीवार का बार-बार टूटना फिल्म का सबसे ढीला पहलू है। दोनों के प्यार में वो दर्द नहीं दिखा। वासना उसपर लगातार हावी रहा। माना जाता है कि कलाकार दिमाग से ज्यादा दिल से सोचता है। लेकिन एक कलाकार समाज में रहता है और इज्जत और शोहरत में समाज की भूमिका है इसे नहीं भूलता। क्या ये प्यार सलमान का प्यार तो नहीं? जो ऐश्वर्या से संबंध टूटने के बाद आक्रोश के चरम पर था।यहां से फिल्म ऊबाउ होने लगती है। एक मरन्नासन लड़की को जीवित करने के लिए किस करने का बहूदा सीन हैरान करता है। रोमांटिक फिल्में बनाने वाले इम्तियाज को इतनी समझ तो है कि प्यार नई जिंदगी दे सकता है पर ऐसी हरकत घिनौनी लगती है। एक कलाकार का प्यार सिर्फ किस करने तक सीमित रहता है ऐसा नहीं है और एक कलाकार का आक्रोश उसकी कला में निकलता तो ज्यादा अच्छा लगता। पर हर कदम पर मारपीट अजीब लग रही है।

फिल्म में कुछ तथ्यात्मक गलतियां भी हैं। एक शख्स जब दूसरे देश की जेल में सजा काट चुका है तो फिर बकायदा पुलिस के साथ उसे अपने देश भेजना भी हास्यास्पद लगा। प्रत्यर्पण तो तब होता है जब किसी शख्सने गुनाह कहीं और किया और गिरफ्तार किसी और देश में हुआ। लेकिन जिस कदर रॉकस्टार को भारत लाया गया उसको देखकर मन खटकता है।




गाने फिल्म की जान हैं पर जब प्रोमो आया था और साडा हक वाला गाना दिखाया जाता था तो लगता था रॉकस्टार ने कुछ ऐसा कर दिया जिससे पंजाब से लेकर कश्मीर तक के लोगों को झकझोर दिया हो। पर फिल्म में उस गाने का संदर्भ एकदम असर नहीं छोड़ता। एक प्यार करने वाली लड़की अगर अपने प्रेमी के साथ नहीं आना चाहती है तो इसमें अधिकार की बात क्या है और इसे कैसे साबित किया जा सकता है? इसमें पंजाब कश्मीर को लाने का क्या मतलब।

मुझे लगता है गाने को संदर्भ के हिसाब से रखा जाता तो इसके नए मतलब निकलते। रहमान का संगीत और मोहित की आवाज ने चार चांद लगाया है। पर एक बात मैं जरूर कहूंगा---ऐसा नहीं कि रहमान ने सूफी संगीत के लिए संगीत नहीं दिया है। रहमान ने जोधा अकबर और दिल्ली 6 में शानदार सूफी गाने बनाए। लेकिन इस फिल्म का सूफी गाना उन दोनों के मुकाबले कमजोर है। जितना अच्छा सूफी गाना बन सकता है वैसा कतई नहीं बन पाया।

तस्वीरें-सौजन्य फिल्म रॉकस्टार

टिप्पणियाँ

Shoonya Akankshi ने कहा…
"रॉकस्टार" पर की गयी समीक्षा यथार्थ के नजदीक है और मनोरंजक भी. समीक्षा में सही कहा गया है :

"गाने फिल्म की जान हैं पर जब प्रोमो आया था और साडा हक वाला गाना दिखाया जाता था तो लगता था रॉकस्टार ने कुछ ऐसा कर दिया जिससे पंजाब से लेकर कश्मीर तक के लोगों को झकझोर दिया हो। पर फिल्म में उस गाने का संदर्भ एकदम असर नहीं छोड़ता। एक प्यार करने वाली लड़की अगर अपने प्रेमी के साथ नहीं आना चाहती है तो इसमें अधिकार की बात क्या है और इसे कैसे साबित किया जा सकता है? इसमें पंजाब कश्मीर को लाने का क्या मतलब।"

मैं इससे सहमत हूँ | फिर भी मेरे अनुसार यह फिल्म एक बार देखने लायक है जिसका जिक्र समीक्षा में कहीं नहीं कहा गया है.
- शून्य आकांक्षी
खुली किताब ने कहा…
सही कहा आकांक्षी जी, एक बार तो देखना जरूरी है। वरना पता कैसे चलेगा इत्मियाज ने क्या परोसा है दर्शकों के सामने।
धन्यवाद
S.N SHUKLA ने कहा…
सार्थक पोस्ट, आभार.

कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
Amit Gupta ने कहा…
गंद और वासना जैसे शब्दों का इस्तेमाल इम्तियाज अली की फिल्म की समीक्षा में थोड़ा खटकता है, लेकिन यही सच है... प्रयोग के लिहाज से देखें तो ये फिल्म कई मायनों में समकालीन फिल्मों से बहुत आगे है, फिल्म रॉकस्टार नए दौर के सिनेमा में ताजी हवा के झोंके की तरह है... जिसमें निर्देशक ने पॉपुलर सिनेमाई ग्रामर को जगह-जगह तोड़ने की कोशिश की है... एडिटिंग में इम्तियाज अली ने जो प्रयोग किए हैं, उसे brave effort कहा जा सकता है... लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ये ताजी हवा अपने साथ गंद भी समेटे हुए हैं... धीरज जी, आपकी समीक्षा की ये लाइन बिल्कुल सटीक लगती है कि

"जैसे ही नर्गिस की शादी होती है उसके बाद से हालात ऐसे बदलते हैं कि जैसे दोनों एक दूसरे को टूटकर प्यार करते रहे हैं और अब दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। यहां तक आने से पहले न तो ऐसी भावनाएं प्रकट हुईं न ही माहौल दिखा।"

यही फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई... प्रयोग अपनी जगह सही है, लेकिन दर्शकों को कहानी के मुख्य किरदारों से जुड़ने के लिए थोड़ा ठहराव चाहिए... आपाधापी में किरदारों के भीतर उमड़ती भावनाओं को दर्शकों के साथ नहीं जोड़ सकते... ये ठहराव फिल्म में कहीं है ही नहीं, यही वजह है कि नायक का प्यार... प्यार नहीं वासना नजर आता है...

इम्तियाज अली की पिछली फिल्मों से तुलना करें तो रॉकस्टार में न तो 'सोचा न था' जैसी मासूमियत है, न 'जब वी मेट' की तरह नायक में बिना कुछ पाने की चाह रखे त्याग की भावना है, न 'लव आज कल' की तरह ये स्थापित किया गया है कि सच्चा प्यार आखिरकार अपनी मंजिल को पा ही लेता है, भले ही नायक-नायिका के मन में लाख भटकाव ही क्यों न हो...

रॉकस्टार एक विद्रोही प्रेम कहानी जरूर है... लेकिन एक मूडी नायक और बिगड़ैल कलाकार की चीखों से दर्शकों को कोई सहानुभूति नहीं रह जाती... नायक को हर वक्त मजाक सूझता रहता है (नायक-नायिका के किस करने से पहले की डायलॉगबाजी याद करें)और दर्शक भी इसे मजाक में ही लेता रहता है... और अचानक नायक की पिटाई के बाद फिल्म खत्म हो जाती है

फिल्म देखकर निकलते वक्त प्यार की भावना में डूबा मन बाहर नहीं निकलता... कोई प्यारा सा एहसास याद नहीं रहता (इम्तियाज की पिछली फिल्मों में ऐसा था) बल्कि कुछ खूबसूरत लोकेशन्स, गाने, गानों का फिल्मांकन और मजाक से भरे कुछ पल ही साथ रह जाते हैं
खुली किताब ने कहा…
अमित भाई,
अच्छी टिप्पणी की है। लिखते रहें।

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