इस्तेमाल की भाषा

यूज एंड थ्रो की इस दुनिया में मैं बिकाऊ बनकर नहीं रह सकती। आप भले कह लें कि जब से आपने मुझे बाजार में उतारा है, मेरी कीमत बढ़ गई है। लोग मुझे इस्तेमाल करने लगे हैं। मेरे सहारे जाने क्या-क्या खरीद बेच लेते हैं। कब तक इस शर्मनाक दौर से गुजरती रहूंगी। फूहड़ से फूहड़ मनोरंजन मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। मैं जीविकोपार्जन के हद से गुजर रही हूं, लोग कहते हैं हम संघर्ष करते हैं। संघर्ष तो मैं कर रही हूं। किसी भी समाज की भाषा सिनेमा, टीवी या विज्ञापनों से मजबूत नहीं होती। भाषा की जड़ें मजबूत होंती हैं- राजनीति,प्रशासन,न्यायालय, व्यवसाय, सामाजिक संवाद आदि में व्यापक पैमाने पर प्रयोग से। साहित्य और पत्रकारिकता के ठेकेदारों ने मेरी ऐसी की तैसी कर दी है। न जनता मुझमें प्रवेश करती है न मैं जनता में। जब सारे महत्वपूर्ण निर्णय मेरी सौतन की झोली में जाते हैं ऐसे में गंभीर चिंतन सोच-समझ और विवेक का ठेका सैंया ने सौतन को दे रखा हो तो मैं तो केवल इस्तेमाल की वस्तु बनकर रह गई। कब से कह रही हूं कोई भी समाज इस विदेशी सौतन के सहारे उन्नति कैसे कर सकता है। मैं अपने ही घर में निर्वासित प्रवासिनी बनकर सम्मान पा रही हूं। जबकि मेरे ससुराल में ज्ञान-विज्ञान बड़ी कंपनियों का सारा कामकाज मेरी सैंया ने इस विदेशी मेम को दे रखा है। अखबार भी इसकी ज़ुबान बोलते हैं। अंतरराष्ट्रीय सारे पुरस्कार सारे यही ले जाती है। मेरे हिमायती चाहने वालों को गंवार औऱ कम पढ़े लिखे की उपाधि दी जाती है। अफसोस है कि यह कोई नहीं देख पाता कि मुठ्ठी भर लोगों की प्रगति के लिए एख बड़ा तबका पिछड़ते रहने के लिए बाध्य है। मेरे ये कम पढ़े लिखे गंवार कब जागेंगे और मुझे पहचानकर इस गोरी मेम को बेपर्दा करेंगे। मुझ से ही मेरे सैंया का वर्चस्व है ये उन्हें कब समझ में आएगा। मैं कब पुन: उस पद पर आसीन हूंगी जो मेरा है जिससे सबकुछ है जो सबकुछ है। हा...हा....भारत दुर्दशा देखी न जाइ।
सुधा उपाध्याय
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