कथाकार, हंस के कार्यकारी संपादक और राजेंद्र यादव
हंस के संपादक श्री राजेंद्र यादव की बौद्धिकता, उनके भाषण, उनका आचार व्यवहार, उनका आक्षेप लगाने का तरीका--और वगैरह-वगैरह न जाने कितने रूप की दुनिया कायल है। माफी चाहता हूं दुनिया नहीं हिंदी साहित्य का एक मठ। एक ऐसा मठ जो उन्हें कहानीकार के तौर पर उत्कंठ स्वर में स्वीकार करने से लगातार हिचकिचाता है। जाहिर तौर पर पत्नी मन्नू भंडारी के सामने कहानीकार के तौर पर उनकी कोई हैसियत भी नहीं है। मेरे इस विचार को बदलने के लिए कोई चाहे कितने बड़े प्रलोभन दे दे मैं अपनी जगह से हिल नहीं सकता। दरअसल अपने ब्लॉग पर ये लेख मैं श्री राजेंद्र यादव जी के लिए नहीं बल्कि उनकी पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजीव के लिए लिखना चाह रहा हूं।
'पाखी'का सितंबर अंक में कथाकार संजीव पर आधारित था। बहुत बढ़िया प्रयास था अपूर्व जोशी जी का। संजीव के लेखन से आम लोगों को परिचित कराने की सफल कोशिश। लेकिन जब आप पत्रिका के पेज 170 पर पहुंचेंगे तब आप अजीबोगरीब पसोपेश में डूब जाएंगे। उस पेज पर शीर्षक है--'सावधान! यह लेखक का जीवन है'इस लेख में जैसे-जैसे आप उतरते जाएंगे एक अजीब सा दर्द आपको अपने अंदर महसूस होगा। ये दर्द है मानवीयता का। एक ऐसा दर्द जो कहानीकार संजीव के घर तक जाने वाली तंग गलियों से होते हुए उनके दो कमरे के डेरे तक पहुंचता तो है, पर उसके बाद सुनाई पड़ती है उस दर्द की चीत्कार। जो हंस के दफ्तर और और संजीव के घर की कोठरी में दम तोड़ देती है। क्योंकि वहां हवा और रोशनी नहीं आती। संजीव ने तल्खी के स्वर में खुद माना कि इन दोनों जगहों पर एक बात सामान्य है---हवा और रोशनी नहीं आती। अपने कमजोर कंधे पर कथाकार संजीव घर का खर्चा ढो रहे हैं। कहने को बहुत बड़े साहित्यकार। लेकिन हालत ऐसी कि राजेंद्र यादव को तरस तक नहीं आता। कसीदे पढ़ने में राजेंद्र यादव ने पता नहीं क्या-क्या लिखा। प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाने वाले कहानीकार के तौर पर स्थापित किया। संभव है इन्हीं खूबियों की वजह से अपनी पत्रिका में उन्हें जगह भी दिया। अब तो संजीव सिर्फ पत्रिका हंस के ही हैं। लेकिन सिर्फ हंस के होकर वो परिवार के लिए कितना रह गए। ये कोई उनकी पत्नी से पूछे। घर की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। किसी तरह घर का गुजारा चल रहा है।
आप सोच रहे होंगे कि संजीव इतनी बड़ी पत्रिका(हंस) के कार्यकारी संपादक हैं, फिर ऐसी हालत कैसे? वो हंस जिसके मालिक और सबकुछ, जिसकी आमदनी के हर पैसे पर घनी व्यक्तित्व वाले राजेंद्र जी का अधिकार है...वो राजेंद्र जी, जो तमाम दलितों और स्त्रियों के उद्धार करने वाले साहित्यकार हैं, वो राजेंद्र जी, जो अपने यादवत्व को छुपाने के लिए प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार को भला बुरा कह सकते हैं, वो राजेंद्र जी, जो दलितों के अत्याचार पर टेलीविजन चैनलों पर घंटों बोलने के लिए तैयार रहते हैं।
मैं नहीं समझ पाता--क्या दलित शब्द सिर्फ जाति से जुड़ा हुआ है? क्या राजेंद्र यादव जैसे दलितों के हिमायती संजीव जैसे कार्यकारी संपादक को इस रूप में पहुंचाने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या संजीव जैसे प्रख्यात लोगों को कम पैसे पर बंधुआ मजदूर की तरह काम कराने वाले राजेंद्र यादव शोषक नहीं हैं। हंस पत्रिका के व्यवसाय पर अंग्रेजी दारू पीने वाले राजेंद्र यादव सिर्फ बौद्धिक मैथुन नहीं करते? सवाल सैकड़ों हैं पर मैं जानता हूं आपको लगेगा, मैं ऐसी बातें क्यों कर रहा हूं? मेरा लेना-देना सिर्फ मानवीयता से है। अगर कहानी की ऐसी समझ रखने वाले संजीव किसी विदेशी कंपनी में काम करते तब भी ऐसी ही हालत होती?
इस देश का दुर्भाग्य है यहां लोग बौद्धिक मैथुन खूब करते हैं और जब खुद की बारी आती है तो असलियत सबके सामने आ जाती है। मैं जानता हूं, मैं राजेंद्र यादव की बौद्धकता के सामने शून्य के बराबर हो सकता हूं। लेकिन दिखावे की दुनिया में वो हर शख्स राजेंद्र यादव से बेहतर है जो ज्ञान में कम और मानवीयता में ज्यादा विश्वास रखता है। शायद यही वजह है कि मन्नू भंडारी राजेंद्र यादव से बहुत बड़ी रचनाकार हैं। क्योंकि एक रचनाकार बौद्धिक भले ही कम हो पर मानवीयता के धरातल पर खड़ा जरूर नज़र आएगा।
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