अपराजिता

लड़ने और जूझने का दम बचपन से ही भरती थी। क्या पता था कि पल-पल प्रतिपल यही दिनचर्या में शामिल हो जाएगा। उसके लिए कभी कोई हरा भरा चिकना रास्ता नहीं था और शायद इसीलिए फिसलने का डर भी कम था। रास्ते बीहड़ सुनसान या थकान से भरे हों तो उठते गिरते आदमी संभल ही जाता है। या यों कह लें खड़ा होने लायक बन जाता है। जय पराजय का प्रश्न उन्हें बेचैन करता होगा, जो अपनी जिंदगी दूसरों की शर्तों पर जीते हैं। न तो उसके पास उधार का चश्मा है और न ही अंतर्भेदी आंखें। जब जो कुछ देखा, भोगा जीया या कह लें सहा, वही उसकी पूंजी बन गई और इसी अनुभव संसार ने उसे समृद्ध कर दिया। कहने को न उसके पास कोई चतुराई है न मीठी बोली पर हां जहां तक मुझे पता है जानबूझकर तो कभी किसी का मन नहीं दुखाया। दुनिया भर की उपलब्धियां हासिल कर लेने पर भी यदि मन में शंका संदेह और संबंधों में असहजता अविश्वास भरा हो तो वो सिकंदर नहीं, पराजित ही कहलाएगा। ठोकरें खाते हुए उपहास झेलकर ताने सुनकर जिसने अपना दमखम संभाला हो वही अपराजिता। भौतिक चकाचौंध में हमसे हमारी दुर्लभ मुस्कान आदमीयत सहजता छीन ली है। यही चिंता का विषय है। उसे जीवन में न कोई रियासत मिली, न कभी कोई उसपर मेहरबान हुआ। इसीलिए यथार्थ उसे अपने ज्यादा करीब और सगा लगा। किसी की आंख में आंख डालकर बात करने का साहस उसने अपने संस्कारों से कमाया था। पर वही साहस उसे बाद में जिद्दी, अड़ियल, सुप्रीरियर कॉम्प्लेक्स का तमगा पहनाने लगा। पराजित नहीं है उसका साहस। क्योंकि वह अपराजिता से भी बहुत बड़ा है और जब-जब कुछ ग़लत होते दिखता है, वही साहस हर सुविधाजीवी सत्ताधारी से लड़ा है। उसे गर्व है कि जो वह है वही रहना चाहती है। लोग समझें तो ठीक और ना समझें तो और ठीक।
सुधा उपाध्याय
टिप्पणियाँ
खूब कहा है।
लिखती रहें।
सुब्रता पाण्डेय