कलियुग के 'हनुमान'



दिल्ली में एक कहावत है---पड़ी डंडी को उठा लिया। जी हां, कलियुग के हनुमान के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। कलियुग के राम(अटल बिहारी वाजपेयी)के शिथिल पड़ते ही बीजेपी की औकात सामने आ गई। एक-एक कर पार्टी के तमाम दिग्गज धूल फांकने लगे हैं। लौह पुरुष(आडवाणी) कितने दिन बाद मुंह के बल गिरेंगे ये नजारा देखना भी दिलचस्प होगा। फिलहाल उनको सहारा देने वाले पार्टी में मौजूद हैं। इसलिए थोड़ा वक्त लग सकता है।

मजेदार बात है कि बीजेपी चिंतन बैठक करने ठंढे प्रदेश शिमला में एकत्रित हुई। माना जा रहा था कि पार्टी हार के कारणों का ऐसा विश्लेषण करेगी कि अगले चुनाव में स्थितियां अपने हक में हो सके। लेकिन ये किसी को नहीं मालूम कि हार के तीन महीने बाद जिस मसले पर पार्टी एकजुट होकर चिंता करने वाली थी उसका रेशा-रेशा तो उधड़ चुका है। न तो अब वो पार्टी रही और न ही पार्टी में नेताओं की वो इज्जत। एनडीए की सरकार के संकट मोचक जसवंत सिंह को राजनाथ सिंह ने ऐसी पटकनी दी बेचारे में मुंह से कुछ न निकला। अब करें तो क्या करें।

दरअसल खुद को लोकतांत्रिक कहने वाली पार्टी में तानाशाही शुरु हो गई है। तानाशाह हैं राजनाथ सिंह। जिनको शह मिल रहा है संघ प्रमुख से। ऐसे संघ प्रमुख जिनका खुद का जनाधार कितना है इसका अंदाजा किसी को नहीं है। अपने घर में हर कोई शेर होता है बाहर निकलने पर जैसे ही गली के कुत्ते झपट्टा मारते हैं तब समझ में आता है...कौन कितने पानी में है। संघ को दरअसल इस बात का अच्छे से ध्यान है कि अब बीजेपी में दम नहीं है। इसलिए संघ को फर्क नहीं पड़ता पार्टी में कौन रहता है और कौन जाता है। संघ सुविधाभोगी तरीके से अपना जवाब तैयार करता है। आडवाणी ने जिन्ना को महान बताया तब बाहर का रास्ता क्यों नहीं दिखाया गया। आज अचानक सबके पास जुबान है। हिम्मत होती...पार्टी के अनुशासन की बात होती तो आडवाणी पर भी लागू होना चाहिए था। लेकिन एक ही गलती के लिए दो अलग-अलग तरह की सजा। ये तो मुंह देखकर किया गया फैसला है।

कांग्रेस का फंडा साफ है। पार्टी का आलाकमान गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही रहेगा। ये सबको मान्य है। इसलिए हर कोई गांधी परिवार की चमचागीरी में लगा रहता है। जरूरत पड़ने पर लोग प्रियंका के बच्चों की भी चमचागीरी करने में भी नहीं चूकते। लेकिन बीजेपी ने अपना तरीका डेमोक्रेटिक रखा था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि पार्टी लगातार सिमटती जा रही है। इतिहास गवाह रहेगा---राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में पार्टी मिट्टी में मिल जाएगी। बस देर है आडवाणी की सक्रिय राजनीति से हटने की।

जिस अरुण जेटली पर पार्टी इतरा रही है उसका कोई जनाधार नहीं है। ग्रास रुट पर उसकी कोई पकड़ नहीं है। विधानसभा का चुनाव अपने दम पर जीत कर नहीं दिखा सकता। फिर ऐसे नेता को उत्तराधिकारी बनने का कोई हक नहीं है। ये भी तय है कि सुषमा स्वराज जैसी नेता क्यों चुप बैठें। कम से कम अरुण जेटली से तो राजनीतिक काबिलियत उनमें ज्यादा है ही।

सौ बात की एक बात जिस पार्टी ने सबसे ज्यादा चाल चरित्र और चेहरे की बात की आज उसकी न तो कोई चाल है और न ही चेहरा। ऐसे में चरित्र की तो कोई अहमियत ही नहीं है।

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
बढ़िया आलेख! अच्छा विश्लेषण!!
arunrajnath ने कहा…
भाई ऐसा है भाजपा में असल लड़ाई राम बनने की है. इस समय के राम हैं लाल कृष्ण अडवाणी, और उनके हनुमान हैं अनंत कुमार. पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी राम थे तब हनुमान थे जसवंत सिंह. पहले वाले राम जब हाशिये पर चले गए तो हनुमान को भी kishkindha पर्वत पर वापस जाना ही था.

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