संतन को कहां सीकरी सो काम...बिसर गए हरिनाम





'शराब आत्मा और मन दोनों को खोखला कर देता है' ये उक्ति देश के राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी के है। ऐसा नहीं कि वो सिर्फ कहने के लिए कोई भी बात कहते थे। बल्कि ज़िंदगी भर उन्होंने उसको निभाया भी। गांधी के सत्य के प्रयोग का यही अचूक हथियार था।

इस वाकये को मैंने इसलिए याद नहीं किया क्योंकि मैं गांधी पर कोई लेख लिखना चाह रहा हूं। मैं गांधी के विचारों से लंबे समय से सहमत रहा हूं और बहुत हद तक उन्हें मानने की कोशिश भी करता रहा हूं। गांधी के सामान को लेकर पिछले दिनों जो छिछालेदर हुई उससे मेरा मन काफी आहत हुआ। मैं बड़ा परेशान रहा हूं। पहले तो सामान की नीलामी का पूरा ड्रामा। और फिर एक और बड़े ड्रामे के तहत शराब बेचने वाले विजय माल्या का सामान खरीदना।

विजय माल्या चाहे कितान ही बड़ा आदमी क्यों न हो...गांधी के सामने बहुत छोटा है। उसके पास करोड़ों अरबों रुपए क्यों न हो..गांधी के सामने बहुत गरीब है। लेकिन दुर्भाग्य, आंधी ऐसी चल रही है कि देश की सरकार को इसकी अहमियत समझ में नहीं आती। केंद्र सरकार को भी पैसे वालों की चमचागीरी में मजा आता है। सरकार के पास 10 करोड़ रुपए नहीं थे कि वो गांधी के सामान खुद खरीद सके। लानत है ऐसी सरकार पर। जिसे अपने राष्ट्रपिता की अहमियत का कोई ज्ञान नहीं है। भाषण देने के लिए सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री और न जाने कौन-कौन, सब गांधी की तारीफ करते नहीं थकते। लेकिन सिर्फ मतलब के लिए।

दुखद ये है कि केंद्रीय पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने बड़े फ़क्र से दावा किया कि भारत सरकार विजय माल्या के संपर्क में थी। अगर नीलामी को अपने हक में करने की सरकार ने योजना बनाई ही थी तो किसी और पूंजीपति को कहा होता। जो कम से कम शराब का धंधा न करता हो। गांधी के आदर्शों का इतना तो ख्याल रख लिया होता। ये बात दीगर है कि गांधी व्यक्तिगत सामान की नीलामी के पक्षधर नहीं रहे हैं। पर अगर सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही थी तो कम से कम इसका ढोंग न किया होता।

कहते हैं राजा गए, प्रजा गई अब तो लोकतंत्र है...पर आदर्शों और मानदंडो की कोई जगह नहीं है...सही है अब वो समय दूर नहीं जब गांधी के सामान की नीलामी पर सियासत शुरु हो जाएगी। चुनाव पास है। देखना ये है कौन सी पार्टी इसको अपना एजेंडा बनाती है।

धन्य है सरकार। धन्य हैं पूंजीपति विजय माल्या।

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