क्या सचमुच कविता एक सैल्फिश विधा है ?




हंस के नवंबर अंक के संपादकीय में राजेंद्र यादव लिखते हैं-"कविता की सारी संभावनाएं निचोड़ी जा चुकी हैं। वहां नया करने के लिए कुछ भी नहीं। सामान्यीकरण की प्रक्रिया में अपने असली व्यक्तिगत को छिपाया जा सकता है। कविता एक सैल्फिश विधा है। कविता में स्रोत और संदर्भ आप स्वयं होते हैं। और उम्मीद करते हैं कि पाठक आपके कहे के साथ साधारणीकरण कर ले।" माफ कीजिएगा राजेंद्र जी, मैं आपके इस तर्क से असहमत हूं। मेरी छोटी सी बुद्धि तो इतना ही समझ पायी है कि कविता जैसी लोकतांत्रिक विधा ना तो जन्मी है ना जनमेगी। वह पर्सनल तो कतई नहीं होती। वह उतनी ही सामूहिक या कह लें सामाजिक जितनी की इस दौर की कहानियां। आपने शायद कविता की धार को अपने जीवन में अनुभव ही नहीं किया। गनीमत है गद्य के बहाने कहानी को कम करके नहीं आंका। कहानी तो तर गई आपके इतना भर कह देने से कि 'गद्य' में संदर्भ 'दूसरे' होते हैं। अपने को अपने आप से तोड़कर दूसरों में घुलाना पड़ता है और व्यापक सामाजिक संबंधों के माध्यम से अपनी बात कहनी पड़ती है। राजेंद्र जी शायद आप इधर कुछ नया नहीं पढ़ रहे वरना इधर जो नई कविताएं लिखी जा रही हैं उनमें आपको स्व नहीं दिखाई पड़ता। इतने बड़े पाठकीय मंच पर से ऐसा अनर्गल प्रलाप आपको शोभा नहीं देता। मेरा अनुरोध है इन सभी नए कवियों से जो इधर लगातार सार्थक लिखते रहने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। वो हंस को इसका करारा जबाव दें। हमेशा चुनौती देते रहने की आदत इस बार राजेंद्र जी को महंगी पड़ सकती है।

मन पीटो सपने जोड़ो
अपनी घुटन समेटो
उनींदी घड़ियों में
उसे बो आओ
जब पक कर खड़ी हो जाए फसल
बांट दो बूरा-बूरा चूरा-चूरा
ऐसे ही होता है सृजन

सुधा उपाध्याय

टिप्पणियाँ

राजेन्द्र यादव का यह पूर्वाग्रह है मेरा मानना है कि राजेन्द्र यादव ही अब निचुड चुके हैं अब उनके पास न सार्थक कहने को बचा है न करने को।
SNIGDHA SARTHAK ने कहा…
राजीव रंजन जी ने जो लिखा है वो शत प्रतिशत सही है। राजेंद्र यादव जैसे लोग अब सिर्फ किताबों के विमोचन और अपनी पत्रिका के बल पर खा रहे हैं। जब जो मन में आता है बक देते हैं। उनकी बातों का न तो तात्कालिकता से लेना देना होता है न समाज से। उनका समाज वहीं तक है जो उनके चरण छूते हैं जिनकी पीठ पर वो हाथ रखते हैं और दुनिया महसूस करते हैं। सुधा जी ने जो टिप्पणी की है उससे हर सार्थक रचनाकार सहमत होगा। खासकर वो जो कविता को परिवर्तन का बड़ा जरिया मानते हैं। इस दौर में जब लोगों के पास समय कम है, राजेंद्र यादव जैसे लेखक की आत्मकथा या उपन्यास के लगातार चलती रहती श्रृंखला के पढ़ने का समय नहीं है ऐसे में कविता ही विद्रोह की जुबान है।

धनंजय धरोहर
ashish ने कहा…
जहां नया करने के लिए कुछ नहीं, वहां जीवन नहीं हो सकता और अगर करने वाली कोई चीज़ है तो वो कविता नहीं हो सकती।
कविता वहीं है जहां जीवन है। सूरज के उगने में, उसकी किरणों के फैलने में, सिकुड़ने में, फूलों-पत्तियों के होने में- न होने में, हमारे पैदा होने में, हर हाल में जीते रहने में, मर मर के जीने में और जी जी के मरने में जो गति, लय, ताल, छंद है वही तो कविता है। ये वो कविता है जो की नहीं गई, इन सबके होने में स्वत: है।
तो राजेंद्र जी परफॉर्म और पुरस्कार वाली कविता का तो नहीं पता लेकिन ये कविता तो जब तक जीवन है तब तक रहेगी। और शब्दों की लुकाछिपी के साथ चलती आ रही इसकी सतत खोज भी अनंत काल तक जारी रहेगी। वो खोज जिसके चलते हाथ आए मुट्ठी भर रत्नों ने जीवन और प्रकृति से सब कुछ निचोड़ लेने का दंभ भर दिया।
सुधा जी, मैं आपसे पूर्णत: सहमत हूं।
Dr. SUDHA UPADHYAYA ने कहा…
कितनी अच्छी बात कही है आशीष जी ने। मानना पड़ेगा कविता की जितनी अच्छी समझ साहित्य को व्यावसायिक मानने वाले लोग नहीं रखते उससे ज्यादा वो लोग रखते हैं जिन्होंने इसे व्यवसाय नहीं बनाया है। लेकिन दुखद ये है कि राजेंद्र यादव जैसे लोग इसे कब समझेंगे।

सुधा
मसिजीवी ने कहा…
कविता बनाम गद्य एक अनर्गल किस्‍म की बाइनरी है... इन्‍हें बिना बनाम देखा जाना चाहिए पर राजेंद्र यादव से ऐसे संतुलन की अपेक्षा उनके साथ अन्‍याय है वे या तो इतने संतुलित हो सकते हैं या राजेंद्र यादव हो सकते हैं :)

हर टिप्‍पणी की तरह पुन: अनुरोध कृपयाआआआअ वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें इससे किसी का भला नहीं होता
IshwarKaur ने कहा…
Ma'am apke kavita par vichaar ache lage nice blog
Dr. SUDHA UPADHYAYA ने कहा…
masijivi ji saadar dhanyabaad aapne vyastatam dincharya me samay nikala .Araajak nahi hai jangal bhinn hai uski savyata uski samskriti uske niyam uska prabhutwa Alag hai uski naagarikta uska prashasan uska apna hi hai samvidhaan. SUDHA UPADHYAYA
A.G.Krishnan ने कहा…
Jai Shri Krishna,

Nice reading.

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HINDI AALOCHANA ने कहा…
sudha jee, masijivi ki bat se mai bhi sahamat hu....
rajendr yadv jaise aise hi soch skte hai...
Ek ziddi dhun ने कहा…
Rajendra Yadav ki HANS men jyadatar doyam darje ki kavitayen chhapti rahi hain aur aisa shayad ve jaanboojhkar karte aaye hain. Aur ye Rajendra Yadav ka koii naya poorvagrh nahi hai. Mujhe lagta hai ve jante hi honge ki unke waqt men hi Muktibodh aur Raghuveer Sahay ho gaye hain aur 60 ki peedhee ke bahut se kaviunke samne hi rahe hain.
Vaise aisa kahne wale ve akele nahi hain. Hamare bahut se mitr alochak kavita uar kavi ki mazak banaya hi karte hain, halanki manch se ve badi baaten bhi karte hain. Bakaul Manglesh `EK KAVI KI JAROORAT KISE HAI?`
Ek ziddi dhun ने कहा…
Rajendra Yadav ki HANS men jyadatar doyam darje ki kavitayen chhapti rahi hain aur aisa shayad ve jaanboojhkar karte aaye hain. Aur ye Rajendra Yadav ka koii naya poorvagrh nahi hai. Mujhe lagta hai ve jante hi honge ki unke waqt men hi Muktibodh aur Raghuveer Sahay ho gaye hain aur 60 ki peedhee ke bahut se kaviunke samne hi rahe hain.
Vaise ve akele nahin hain aisa kahne wale. hamare bahut se alochak kavi aur kavita ki khilli udaya karte hain halanki ve manch se badi-badi vyakhya bhi kar aate hain. bakaul Manglesh `EK KAVI KI JAROORAT KISE HAI?`

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