'रैकेट' की महिमा

'रैकेट'। आज की तारीख में सबसे प्रचलित शब्द। अगर रैकेट है तो जीवन सार्थक। और अगर रैकेट नहीं है तो सब बेकार। ऐसा नहीं कि ये शब्द महज महानगरों के लिए उपयोगी है। इसका विस्तार तो हर क्षेत्र और हर स्तर पर हुआ है। रैकेट का पर्याय है बढ़िया मैनेजर। जानकारों का मानना है कि बिना रैकेट के न तो कोई अच्छा मैनेजर हो सकता है और न ही वो किसी बेहतर काम को अंजाम दे सकता है। आप अगर नज़र दौड़ाएंगे तो आपको हर तरफ ऐसे लोग आसानी से मिल जाएंगे। कुछ धुरंधर रैकेटियर और कुछ उस प्रक्रिया में अग्रसर।

देशकाल और समय दोनों में रैकेट की इतनी ज़रूरत है कि अगर आपने इस दिशा में काबिलियत हासिल नहीं कि तो आप अनफिट हैं। जी हां, आप नकारे और महज दो कौड़ी के करार दिए जाएंगे। ये और बात है कि जिनके पास रैकेट है वो भी दो कौड़ी के ही होते हैं। न कम न ज्यादा। अनफिट का सीधा मतलब है आपका चालाक न होना। तिकड़मी राजनीति में बुद्धू। समय को देख परख कर काम न करने वाला। संभव है आप एकदम सही हों पर उसका क्या मतलब। वो किसी के काम नहीं आएगा। मैनेजर तो वो है जो खुद का ज्यादा और दूसरों का कम ध्यान रखे। खुद की लकीर बड़ी करने की कोशिश करे। उसके लिए चाहे चरित्र का कितना भी हनन हो, क्या फर्क पड़ता है। सामाजिक सरोकारों को समझने वाले कहते हैं कि उत्तर आधुनिकता का दौर है। अगर शख्स का अपनी समझ और अपना आदर्श है। इसे चरित्र से कतई जोड़ा नहीं जा सकता। संभव है उनकी बातों में दम हो। पर दिन के आखिर में हर कोई खुद में तो झांकता ही होगा।

रैकेट से जुड़ा ही एक मजेदार वाक्या आपसे शेयर करता हूं। लोग मुझे कहते हैं तुम क्या करोगे ज़िंदगी में। सिर्फ काम, काम और काम से कोई शख्स बड़ा नहीं बनता। जबतक रैकेट का इस्तेमाल न हो उच्चाई पर चढ़ना मुश्किल है। जाहिर है जो सलाह दे रहे हैं वो मेरा भला चाहते हैं। पर मैं कैसे मानूं कि ईश्वर ने मुझे जितनी किस्मत दी है, जितनी ताक़त दी है उसे कोई अपने रैकेट से छीन लेगा। मेरी रफ्तार धीमी पड़ सकती है पर मैं रूक जाऊंगा...ऐसा नहीं होगा।

कहते हैं दफ्तरों में बॉस के पसंदीदा वही होते हैं जो रैकेट में माहिर हैं। जिनके रैकेट का दायरा बड़ा है। दरअसल समाज में चमचागीरी का ऐसा प्रकोप है कि बिना उसके न तो तरक्की मिलती है और न ही इज्जत। रैकेट का दुष्प्रभाव ऐसा है कि साहित्य में फ्लैप पढ़कर समीक्षा लिखने वालों की वाहवाही ज्यादा है पर गंभीर समीक्षा को दरकिनार कर दिया जाता है। हंस जैसे तमाम तथाकथित पत्रिकाओं में रचनाएं उनकी छपती है जिनका संपादक से सीधा संबंध है। जाहिर है उन्हें भी रैकेट का खूब अच्छा ज्ञान है। पत्रकारिता में बड़े वो माने जाने लगे हैं जो बॉस से लगातार संपर्क में हैं। बॉस को मक्खन लगाकर उनकी चमचागीरी करते हों। लोगों की शिकायतें बॉस तक पहुंचाते हों। जाहिर है बॉस को भी पसंद हैं ऐसे ही लोग। यही वजह है कि उनकी आंखों पर पर्दा चढ़ता जाता है और उनके खिलाफ एक लंबी फौज खड़ी होती जाती है। आज का सार तत्व यही है कि

रहिमन रैकेट राखिए, बिन रैकेट सब सून
चमचागीरी है एक अस्त्र, वरना धून तो धून

टिप्पणियाँ

Dr. SUDHA UPADHYAYA ने कहा…
बढ़िया। बहुत बढ़िया। रैकेट और चमचागीरी को अच्छी तरह रेखांकित किया है।

सुधा उपाध्याय

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