जानकीपुल: सृजनात्मकताएं मृत्यु का प्रतिकार हैं: पिछले 1 जनवरी को उदयप्रकाश 60 साल के हो गए. मुझे बहुत आश्चर्य है कि उनकी षष्ठिपूर्ति को लेकर किसी तरह की सुगबुगाहट हिंदी में नहीं हुई...
कुछ तो होगा कुछ तो होगा अगर मैं बोलूंगा न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा टूट मेरे मन टूट अब अच्छी तरह टूट झूठ मूठ मत अब रूठ---रघुवीर सहाय सहाय जी ये पंक्तियां ज़िंदगी के लिए रामबाण की तरह है। सत् प्रतिशत मन को शांति मिलती है। अगर ध्यान से पढ़ें और अमल करें तो कम से कम मन की परेशानियां तो ज़रूर दूर होती हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि लोग जानने समझने के बाद भी कुछ नहीं बोलते। मुक्तिबोध हमेशा ऐसे लोगों के खिलाफ लिखते रहे। पाश ने कहा था-बीच का रास्ता नहीं होता। बस सच यही है अगर ग़लत है तो ग़लत और सही है तो सही। पर लोग कहां ऐसा करते हैं। अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगा।
रोज़ सुबह की तरह आज भी मैं राजपथ पर टहलने निकला। राजपथ वो नहीं जिसपर पैरेड होता है , अपने घर के बाहर वाली सड़क को भी मैं राजपथ ही कहता हूँ। वैसे भी कहने में क्या जाता है। किसी को ‘ वीर ’ कह देने से वो वीर थोड़े न हो जाता है। रहता तो याचक ही। चाहे जितनी बार भीख माँग ले। खैर , राजपथ पर टहलते - टहलते अचानक मेरी नज़र एक सूखे पेड़ पर गई। दीमक ने उस पेड़ को चूस लिया है , जब तक खड़ा है , तब तक पेड़ है। जिस दिन गिर जाएगा , उसके छोटे - छोटे टुकड़े काटकर लोग बोन फ़ायर की मस्ती में दारु पी लेंगे। उस सूखे पेड़ पर कौवों की सभा चल रही है। नमस्ते की मुद्रा में सारे कौवे अलग - अलग टहनियों पर बैठे हैं। मुझे हैरानी हुई। कहीं से चू - चपड़ की कोई आवाज़ नहीं आ रही है। मैं रुक गया। मन ही मन कहा , वाह ! हनुमान जी , आपकी चालीस की महिमा है कि लाउडस्पीकर तो क्या चिड़ियों की आवाज़ तक बंद हो गई। तभी एक कौवे ने ज़ोर से कांव - कांव किया। मुझे अपनी
उदय प्रकाश की कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ से गुजरते हुए एक बार फिर वही अहसास बड़ी सिद्धत से हो रहा है कि लेखक का एकांत किसी संन्यासी या संत का एकांत नहीं है। वह मृत्यु का एकांत है। यानी मृत्यु रचना की पूर्व शर्त है। मृत्यु के बाद ही रचना संभव होती है। कैंसर और मृत्यु के आसन्न आगमन को अतिक्रमित करने या उससे टकराने की इच्छा ही उदय प्रकाश की कविताओं और कहानियों का मूल उदगम स्रोत है। जिसे उदय प्रकाश ने लंबे अरसे तक भीतर-भीतर संजोए रखा होगा, वहीं इंस्टिंक्ट या संवेग इस कहानी में भी फूट पड़ता है। इन तमाम कहानियों में एक जो आतंरिक लय विद्यमान है उसे अब आसानी से पहचाना जा सकता है। वह जीवन जगत के जटिल अनुभवों को बिना किसी तारतम्य के कहानी में फिर से जीने की चेष्टा करते हैं। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि उनकी सृजनात्मकता का जो कच्चा माल है वह कमोबेश हर कहीं चाहे वह कविता हो या कहानी उसी घुटन, पीड़ा और संत्रास को हराने की चेष्टा है। मेरी भी यही समझ है कि बिना किसी एक विशेष मनोदशा के कोई कालजयी रचना संभव भी नहीं होती। हां सालजयी रचनाओं को छोड़ ही दिया जाए। अंग्रेजी भ
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