ये महापर्व नहीं है




ये कैसा लोकतंत्र है? चुनाव मुद्दाविहीन है। पिछले डेढ़ महीने में हर पार्टी ने अपना एजेंडा बदला है। घोषणा पत्र में जो कुछ प्रकाशित करवाया, उसपर किसी रैली में उस दल के नेता ने जोर नहीं दिया। अगर आप गंभीरता से चुनाव को फॉलो कर रहे हों तो आप को इस बात का अंदाजा जरूर होगा। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में कहा था कि चावल तीन रुपए किलो हो जाएगा। लेकिन न तो पीएम न सोनिया और न ही स्टार प्रचार राहुल गांधी कहीं ये बोलते सुने गए कि ऐसा वाकई होने जा रहा। जहां रैली हो रही है या तो वहां की सरकार को गलिया दिया गया या फिर उनके बड़े नेता को भला बुरा कहा गया। मैं एक बात कहना चाहता हूं जिस कदर अमेरिका में चुनाव होता है वैसे चुनाव की कल्पना भारत में अगले कम से कम 20 साल तक नहीं कर सकते। जिन मुद्दों पर बहस होती है, जिन बातों पर जनता झूमने लगती है, जिसे लेकर देश और दुनिया में बदलाव की नई व्यवस्था बन सकती है वो सब होता है यहां। पर हमारे यहां वो नहीं होता बाकी सबकुछ होता है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं जब से मैंने होश संभाला है तब से लेकर आज तक चुनाव में एजेंडा लगभग एक ही रहा है--विपक्षी पार्टी को गाली देना। विकास की दुहाई जरूर देते हैं लोग पर निशाना सरकार पर होता है। शिकायत और नीचा दिखाने की राजनीति। राजनीति के बड़े जानकार, चिंतक का मानना है कि उत्तरोत्तर विकास की पहली प्रक्रिया है राजनीति। पर राजनीति स्वस्थ और स्वच्छ हो।
जाहिर है भारत में जिस कदर संभावनाएं है उसका अंदाजा विदेशी कंपनियों और सरकारों को है पर यहां की सरकारों को शायद उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए। यही वजह है कि हर पार्टियां सिर्फ इस फिराक में रहती है कि सरकार कैसे बने।

आप ने पिछले कुछ दिनों में देखा होगा---पीएम बनने के लिए किस कदर की होड़ लगी है। बीजेपी के वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी। ऐसा लगता है जैसे आडवाणी पीएम नहीं बने तो जिंदगी का सबसे बड़ा सपना अधूरा रह जाएगा। उन्हें इस बात की तकलीफ रहेगी कि अटल जी तो बन गए वो रह गए। एक टीस हमेशा चुभती रहेगी। दूसरे शरद पवार। राज्य की सरकार में उलटफेर का माद्दा रखने का दम तो रखते हैं। केंद्र में उठा-पटक की राजनीति कर सकते हैं। सोनिया के विदेशी मुद्दे पर कांग्रेस से टूटकर अलग पार्टी बना सकते हैं पर गाहे-बगाहे उनकी जुबान से ये निकल ही जाता है पीएम कैसा हो। जाहिर है मंशा झलक जाती है। जिन्हें अदब और तहजीब आज तक नहीं आई--वो भी पीएम बनकर पैसा बटोरना चाहती हैं---मैं बात कर रही हूं मायावती का। मायावती को लेफ्ट ने इतना लिफ्ट कर दिया कि वो इन दिनों पीएम बनने की तिकड़मी राजनीति में जुटी रहती हैं। मनमोहन के लिए खुद सोनिया ऐलान कर चुकी हैं। पर ये भी आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस जिस बात को पहले कभी नहीं बताती थी उसका खुलासा सोनिया ने चुनाव से पहले कर दिया। छुपी बात तो यही है कि अगर प्रणव दा जैसे लोग पीएम बन गए तो सोनिया की राजनीति का बंटाधार हो जाएगा। और फिर राहुल एक-दो साल बाद पीएम कैसे बन पाएंगे। ये सारी बातें ऐसी हैं जिसे समझता हर कोई है पर बोलने की हिममत कोई नहीं करता। चूंकि कांग्रेस में अलग तरह की तानाशाही है।

चाहे पीएम कोई भी बने। जोड़तोड़ की राजनीति का खेल कोई भी खेले। पर ये तय है कि जनता खाली पैर रेलियों में नहीं आती। और अब उसने साहस भी कर लिया है पीएम के ऊपर भी जूता फेंकने का। इसलिए नेताओं को इस बात का डर तो हमेशा सताने लगा है कि कहीं कोई जूता न फेंक दे। यही है असली लोकतंत्र। मैं जूता फेंकने वालों को तहे दिल से हिम्मती मानता हूं। क्योंकि जब जनता लाचार और विवश हो जाती है। उसकी सुनने वाली कोई नहीं रह जाता तब उसके पास जूता फेंकने की ताकत आती है। कोई नहीं जानता जूता फेंकने वाला फिलहाल किन परिस्थितियों से गुजर रहा हो। जूते का सीधा संबंध विकास और पिछड़ेपन से है। नाराजगी से है। दर्द से है। पीएम का सम्मान होना चाहिए। लेकिन जिसने जूता फेंका उसके सम्मान का रखवाला कौन है? जाहिर है पूरा लोकतंत्र मौन है।

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