मालिक का 'मल'

सृष्टि के निर्माण से ही संभवत: एक मालिक है और ढेर सारे उसके मलवाहक। 'मल' का शाब्दिक अर्थ आप कुछ भी लगा लें-
यह आपकी बुद्धि और विवेक पर छोड़ा जाता है। लेकिन उसका तलीय स्वर और अर्थ लगभग एक ही है- ऐसी चीज़ जिसे हमेशा खराब माना जाता रहा हो। जिसकी प्रकृति सड़ांध फैलाना है। आसपास को अपने होने का एहसास कराना। जिसकी छाया मात्र भी स्वच्छता और सुंदरता को बदबूदार बना दे। 'मल' का फिजीकल एक्ज़ीस्टेंश भी अपने कई रूप में हमारे और आपके आसपास विद्यमान रहता है। वो चाहे चमचे के रूप में हो या फिर मालिक, बॉस की आंख हो या फिर आपका दोस्त बनकर आपकी पीठ में छुरा भोंकने वाला हो। बस यह आपकी काबिलियत पर है कि वो कौन है जिसने 'तैलाभिषेक'(तेल लगाने की परंपरा का नाम रूप) में महारत हासिल की है।

'मालिक' के अर्थ में भी व्यापकता है। ऐसा नहीं कि जो नौकरी दे रहा है वही मालिक है। जिसने चाहे अनचाहे आपकी ज़िंदगी को बेहतर करने का आश्वासन दे दिया वही मालिक है। अलग-अलग क्षेत्रों में मालिक की परिभाषा बदल जाती है। जिस भी दफ्तर में मालिक ने आपको काम दिया उसकी तो आप पर कृपा है ही। बस ध्यान ये रखें कि अगर आपके अंदर मल ढोने की काबिलियत नहीं है तो फिर जल्दी ही आपके प्रति मालिक का रूख बदल सकता है। ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है। लेकिन उसका कारण मालिक की पारखी नज़रें हों ऐसा नहीं है। बल्कि मालिक के पुराने मलवाहक इस काम में इतने सिद्धस्त होते हैं कि वो किसी और नए का हस्ताक्षेप बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। इसलिए ये मत भूलें कि मालिक के साथ-साथ उनके मलवाहकों का भी मल उस नए शख्स को हर हाल में उठाना होगा। मतलब ये कि मालिक का मल उठाने के चक्कर में उनके चमचों के तमाम बदबूदार और सडांध भरे मल भी न चाहते हुए भी लंबे समय तक उठाने होंगे। फिर कई वर्षों बाद अगर मालिक की नज़र आप पर पड़ गई तो समझिए आपकी ज़िंदगी सार्थक हुई। वरना ढोते रहो होरी की तरह दुखों के पहाड़ जैसा।

साहित्य में 'मालिक' का मतलब एकदम बदल जाता है। साहित्य का मालिक मठाधीश होता है। अगर आप पर मालिक की नज़र किसी गोष्ठी, सेमिनार वगैरह में पड़ गई। और आपके अंदर उन्हें कोई स्पॉर्क नज़र आ गया तब तो आपकी ज़िंदगी तर गई। वरना दफ्तरों के मालिकों और उनके चमचों के मल ढोने से ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है साहित्य में। साहित्य में अकसर ऐसे मालिक मिल जाते हैं तो महिला प्रेमी होते हैं। आज भी ऐसे मालिकों से पूरा जगत जगमगा रहा है। फिर रचना चाहे जैसी हो उस पर पत्रिकाओं में सुनियोजित विवाद उठान लाजिमी है। कोई आत्मकथा लिखे और विवाद न हो--ऐसा कैसे हो सकता है। आश्चर्यजनक तो ये है कि आत्मकथा में भी यशराज फिल्म का पूरा पुट मिल जाता है। पता नहीं मालिकों का कैसा असर है कि उनकी ज़िंदगी भी फिल्मों जैसी लगती है। वाह! मालिक,तेरे मल की कृपा अपरमपार है।

राष्ट्रीय नेताओं के मल ढोने की प्रक्रिया तो निरंतर चली आ रही है। शहीद भगत सिंह की फांसी के लिए अब भी कई लोग गांधी को कई मायने में दोषी मानते हैं। लोगों का तो ये बी कहना है कि उसके तल में भी यही स्वर उभर रहा था। शहीद भगत सिंह ने खुद की राह बनाने की कोशिश की। उन्होंने पुराने विचारों को अपने सिर लेने से साफ इंकार कर दिया। बस गांधी को यही नागवार गुजरा। आज तो नेतागीरी में जिसने जितना मल ढोया, जिस सिद्धत से मल ढोया वही आगे गया। वरना पार्टी का झंडा ढोते-ढोते लोगों की उम्र खत्म हो जाती है।

वाह! मालिक,तेरे मल की कृपा अपरमपार है।

टिप्पणियाँ

Neelima ने कहा…
बहुत सही कहा !
आवारागर्द ने कहा…
कमाल है, कमाल है... क्या खूब मल महिमा का गुणगान किया है आपने... जिस खूबसूरती से इस सड़ांध को आपने जगजाहिर किया है, वो भी काबिलेतारीफ है... मैं आशा करता हूं कि मल महिमा का गुणगान इसी प्रकार करते रहें... सफाई और सुंदरता के साथ इस बदबू को फैलाते रहें...यही कामना है... आपकी लेखनी में जादू है... जो जरूर किसी न किसी दिन लक्ष्मी बनकर टपकेगा...(मल बनकर नहीं)
ashish ने कहा…
धीरज भाई,
तमाम लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए साधुवाद। ये दुर्भाग्य ही है कि मलवाहक मलमल पहने चमकते फिर रहे हैं और काम करने वालों को मल मल कर धो रहे हैं।
...वही पुराना आशीष

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