जुझारुओं के लिए पैगाम

कोई दु:ख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
वही हारा
जो लड़ा नहीं
-- कुँवरनारायण

परिस्थितियां पशोपेश में डाल सकती हैं। किंतु परिस्थितियों को हावी होने से बचाना होगा। समय बलवान है। सबकुछ सिखाता-दिखाता है। व्यक्ति दु:ख-सुख से परे रह नहीं सकता। किंतु इनकी सही परिभाषा क्या है? मनुष्य यदि जूझने पर आमादा हो जाए तो क्या नहीं कर सकता? लोग डराते हैं। समाज ताने देता है। परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती हैं। पर लड़ने से पहले हार जाने वाला सबसे बड़ा कायर है। जूझने में जो मज़ा है वह किसी 'पाने' में नहीं। समझ वही सकता है जिसने पूरे साहस से लड़ाई की हो। सरेंडर कर देना मौत की स्थिति है। किंतु जब तक मौत और जिंदगी का फ़ासला हो, लड़ाई जारी रखनी होगी। दु:ख डिगा सकता है। हिला देता है। बेचैन कर देता है। पर मार नहीं सकता। मरता वही है जो दु:ख को अपने पर हावी होने देता है। समय और समाज उन्हीं के आगे नतमस्तक होंगे जो अंतिम साँस तक अपनी लड़ाई जारी रखते हैं। जीतना जिसका उद्देश्य नहीं, संघर्ष ही जीवन हो। जूझ में ही उद्देश्य निहित है। जीत का आनंद है। खोने और पाने के बीच की जद्दोजहद ही मायने रखती है। 'साहस' उस जीवटता का नाम है जो व्यक्ति से वो तक करवाती है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

दु:ख का दु:ख की तरह लेना कायरता है। आत्मसमर्पण पलायन है। जूझना जीवन है। व्यक्ति को हमेशा विपरीत परिस्थितियों से मुकाबले के लिए तैयार रहना चाहिए। जोखिम कहां नहीं है। पर 'लीक' पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल व हारे हैं। हमें तो बने बनाये ढर्रे बासी और पुराने लगते हैं। जिस काम को करने में जूझ नहीं, रगड़ नहीं, वह बेचैनी नहीं वह मृत प्राय है। ऐसे काम किए तो क्या और न किए तो क्या?

ज़िंदगी का नामोनिशान प्राप्ति में नहीं प्रक्रिया में है। जीतना एहसास मात्र है। सफलता से ज्यादा मायने सार्थकता में है। व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण अपनी लड़ाई जीत ही लेता है। कभी जायज़ तरीके से, कभी नाजायज़ तरीके से। किंतु जीत कर भी सिर धुनता है। आखिर क्या पाया? कैसे पाया? जब प्रक्रिया पर विचार करता है तो हारे हुए व्यक्ति से ज्यादा खुद को शर्मिंदा पाता है। दो केवल लड़ा, हार-हारकर लड़ा, बिना परिणाम की चिंता किए लड़ा- वही साहसी है। दु:ख उसके साहस के आगे कुछ भी नहीं। जिसने लड़ने का मन ही नहीं बनाया, बीच का रास्ता अपना, जोखिम नहीं उठाया वह जीत का स्वाद क्या जानेगा। जीत और हार तो केवल खोखले शब्द हैं उनमें आत्मा तो 'जूझ' ही भर सकती है। जिसने प्रतिवाद का जोखिम उठाया उसने वहीं दु:ख को हरा दिया। क्योंकि जुझारु हारने जीतने से भी परे है। दु:ख-सुख उसे बार-बार डराते धमकाते, लुभाते-ललचाते हैं पर जुझारु डिगता नहीं। साहस से काम लेता है और अपनी लड़ाई जारी रखता है।






टिप्पणियाँ

अत्यन्त सुंदर परिकल्पना ...!
उन्मुक्ति ने कहा…
कोई दुख
मनुष्य से बड़ा नहीं
वही हारा
जो लड़ा नहीं

नित संघर्ष से जूझते हुए अधिकतर भारतीय लोगों के लिए आपके शब्द बड़े प्रेरणादायी हैं । इन्हे पढ़कर नवीं कक्षा में पढे, रामधारी सिंह दिनकर के निबंध "हिम्मत और जिंदगी" की याद आ गयी । अक्सर जब भी साहस की जरूरत होती है तो उन्हीं का निबंध एक साँस में पढ़ जाती हूँ । अब आपका पैगाम भी पढ़ा करूंगी । ____ मोनिका

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