बदल गई परिभाषा

"पत्रकार और साहित्कार में कोई अंतर है क्या? मैं मानता हूं कि नहीं है। इसलिए नहीं कि साहित्कार रोजी के लिए मीडिया में नौकरी करते हैं, बल्कि इसलिए पत्रकार और साहित्यकार दोनों नए मानव संबंध की तलाश करते हैं। दोनों ही दिखाना चाहते हैं कि दो मनुष्यों के बीच नया संबंध क्या बना। दोनों के उद्देश्य में पूर्ण समानता है। कृतित्व में समानता कमोबेश है। पत्रकार जिन तथ्यों को एकत्र करता है उनको क्रमबद्ध करते हुए उन्हें परस्पर संबंध से विच्छिन्न नहीं करता जिससे वे जुड़े हुए और क्रमबद्ध हैं। उसके ऊपर तो यह लाजिमी होता है कि वह आपको तर्क से विश्वस्त करे कि यह हुआ तो यह इसका कारण है, ये तथ्य हैं और ये समय, देश, काल परिस्थिति आदि हैं जिनके कारण ये तथ्य पूरे होते हैं। "( लिखने का कारण- रघुवीर सहाय-पृष्ठ-177)

सहाय जी ये पंक्तियां उद्धत करने का मेरा मक़सद ये नहीं है कि मैं किसी को ये बताऊं कि कोई पत्रकार और साहित्यकार क्यों बना और क्यों बनना चाहता है। मैं सिर्फ ये इशारा करना चाहता हूं कि सामाजिक संरचना के टूटने और उसके बिखरने के पीछे जो प्रेरक तत्व काम कर रहे हैं उसे सही तरीक़े से दर्शाया जा रहा है कि नहीं। अगर हां तो फिर पत्रकारों द्वारा किया गया कार्य सही दिशा में अग्रसर है। और अगर ऐसा नहीं हो रहा है सिर्फ स्वार्थ सिद्धि का भौंडा खेल चल रहा है तो फिर उसे कृपया पत्रकारिता मत कहें। सीना ठोंक कर ये दावा न किया जाए कि हम समाज का असली चेहरा लोगों तक पहुंचाने के लिए वचनबद्ध हैं। प्रतिबद्धता और दिखावे में जब भी घालमेल होगा कि परिभाषाएं अपना स्थाई अर्थ बदलने लगेंगी।

दरअसल सामाजिक परिवर्तन का जो दौर आज है उसमें खुद को दूसरों से ज्यादा बेहतर बताना और जताना नितांत आवश्यक मंत्र माना जाता है। आत्मप्रचार के इस दौर में ईमानदारी और निष्ठा मायने नहीं रखती। मायने रखता है बाज़ार। बाज़ार में खुद को बेचने के लिए कितने फंडे अपनाए जाएं ये मुख्य बात है। इसके लिए फिर चाहे खबरों को फैब्रिकेटेड कर के जनता को पेश किया जाए या फिर लोगों को जहर की गोलियां खाने के लिए पैसे ही क्यों न दिए जाएं या फिर आत्मदाह के लिए सोचने वाले शख्स को केरोसिन तेल और माचिस ही क्यों न देना पड़े। सब जायज है। बाज़ार मानवता से कहीं बहुत ज्यादा बड़ा हो गया है। संवेदना और बाज़ार दो अलग-अलग चीजें हैं। जिनका आपस में कभी कोई संबंध नहीं रहा है। ये तब है जब आम लोगों में मानवाधिकार और अधिकारों को लेकर सचेतनता पहले से बहुत ज्यादी बढ़ी है।

आम प्रचलन में एक बात धडेल्ले से कही जाती है कि आज के नेताओं ने राजनीति की परिभाषा के स्थाई भाव को ही बदल दिया है। पिछलों कुछ वर्षों में यही बात पत्रकारिता के लिए आम हो गई है। सुर्खियों में रहने के लिए मीडिया ने भी एक ही एजेंडा सेट कर लिया है--खब़र हर कीमत पर। इसकी सकारात्मकता बड़े मायने रखती है पर इसका दुरुपयोग किसी भी हद तक हो सकता है। होशियार और समझदार पत्रकार जानते हैं कि मीडिया में आग कैसे लगाई जाती है, एकदम से बुलंदी कैसे पाई जाती है, बॉस की आंखों पर पट्टी कैसी चढ़ाई जाती है। ये एक बार हो गया कि बस। चैन और आराम तय है। फिर चाहे कोई कुछ भी कह ले। अपने हिसाब से खबरों को गढ़ा जा सकता है। उसके लिए योजना बनाई जा सकती है।

चाहे स्टिंग ऑपरेशन हो या फिर तथाकथित बड़ी खबरों को ब्रेक करने की होड़ हो--घालमेल की गुंजाइश ज्यादा रहने लगी है। जनता की आंखों में धूल झोंककर टीआरपी जुटाया जाता है। पर साख पर एक बार बट्टा लग गया तो फिर उसका कलंक ताउम्र साया बनकर चलता रहता है।

टिप्पणियाँ

मसिजीवी ने कहा…
अमॉं गलत फँस गए मियां आप।

जिस नौकरी और पत्रकारी दुनिया में आप हैं उसके लिहाज से पत्रकारिता की इस वर्णित उदात्‍तता से उसका अंतराल..इतना अधिक है कि वे शायद एक ही स्पेस तक में नहीं हैं।

पर चलो कोई अभी तक उस पत्रकारिता की बात तो कर रहा है।
Dr. SUDHA UPADHYAYA ने कहा…
IS BADALTE DOUR ME AAPNE AB TAK APNI SAAFGOI AUR IMAANDAARI KO ZINDA RAKHTE HUE IS SACHAI SE NA KEWAL RUBAROO KARAYA BALKI SWEEKARNE KA JOKHIM BHI UTHAYA ISKE LIYE BADHAI SWEEKARE JAB SAMAAJ BURI KHABRO SE PATA PADA HO AISE ME KEWAL TRP KE LIYE KHABRO KA GADHE JAANA BEHAD SHARMNAAK HAI SUDHA UPADHYAYA
note pad ने कहा…
हम्म्म ! बात सही तो है पर ........
खुली किताब ने कहा…
मसिजीवी जी,
अपने आस-पास की चीजों को उसी रुप में स्वीकार कर लेना एक खास तरह की (......) परंपरा को आगे बढ़ाना है। सचेतनता को बनाए रखना गलत नहीं हो सकता। मसिजीवी जी, जैसे ही हम फंसने शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसका सीधा मतलब होता है संघर्षरत। अगर आसानी से निकल जाते तो फिर उसको स्मूथ कहकर अलग कर दिया जाता।

सुधा जी, विजयदेव नारायण साही ने 'नितांत समसामयिकता' का इस्तेमाल शायद इसीलिए करते थे। जिसका मतलब सिर्फ 'अभी' ही नहीं होता था बल्कि उसका मतलब उस समय की तमाम परेशानियों को झेलते हुए उसमें बेहतर की गुंजाइश पाने की होता है।

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