विडंबना

प्राय:
जलने वाली चीज़ें
बीड़ी या सिगरेट होती है
जिसे, आखिरी कश के बाद
कुचल दिया जाता है

इस सच्चाई से हर 'लघु मानव रू-ब-रू है। ('लघु मानव' टर्म प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार विजयदेव नारायण साही का है।) दरअसल इस वैश्वीकरण के दौर में होड़ है आगे चलने की। मंजिल पर पहुंचने की। मंजिल कहां है? दौड़ने वाले को स्पष्ट नहीं है। दूसरों को देखकर, दूसरों की तरह जीने की लालसा मंजिल बन जाती है। खूब तरक्की, बड़ा ओहदा और अपने वृत्त में यश। पर सच मानिए, ये मंजिल नहीं है। ये तो दूसरों को देखकर देखा गया सपना है। लेकिन इन सपनों को पाने में पूरी ज़िंदगी लग जाती है। पूरी ज़िंदगी से मतलब है संवेदना, ऊर्जा और आत्मीयता को लगातार होम करना पड़ता है। महानगरों की ज़िंदगी का स्थाई भाव सिर्फ और सिर्फ यही है। यही स्थाई भाव देश के दूसरे हिस्सों में निरंतर प्रवाहित हो रहा है।

महानगरों का एक और स्थाई भाव होता है विडंबना। यहां बिना मतलब के, बिना ज़रूरत के लोगों परिवार वालों से भी नहीं मिलते। ऐसा नहीं कि पारिवारिक संबंध में दुराग्रह है। बल्कि समय की कमी। इसकी बड़ी वजह है दूरी। यही दूरी धीरे-धीरे संबंधों में भी परिवर्तित होती जाती है। ज़ाहिर है भविष्य में महानगरों की संख्या और बढ़ेगी, हम तरक्की की राह पर अग्रसर होंगे। पर इसमें लगातार पीछे छूटता जाएगा अपनत्व। हम सब इसके लिए अभिशप्त हैं।

टिप्पणियाँ

मसिजीवी ने कहा…
हम्‍म

देर से देखा पर आपका चिट्ठा विचार सघन है।

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